Friday, January 23, 2015

कश्मीर का अलग चेहरा


( आज के दैनिक जागरण में प्रकाशित )

पश्चिमी कश्मीर की ऊॅची पहाडियों में तेज बहती झेलम के ऐन किनारे स्थित उड़ी में बहुत कुछ नही बदला है। बहुत साल पहले जब मैंने यहाॅं बतौर लेफ्टिनेन्ट अपनी आर्टिलरी यूनिट ज्वाइन की थी, तब यह गाॅंव ही हुआ करता था। आज यह एक छोटे कस्बे जैसा है। इन क्षेत्रों में कोई टूरिस्ट नहीं आता। उसे तोशामैदान, देवदार के जंगलों, नौगाॅव के लोकटबंगस की खूबसूरती नहीं मालूम। आम टूरिस्ट केरन घाटी में किशनगंगा के तट तक नही पहुॅचता। शेष भारत के लिये सिर्फ कश्मीर घाटी ही कश्मीर है। 2005 के भूकम्प ने उड़ी व आसपास के पहाड़ी ग्रामों को बहुत क्षति पहुॅचाई। यह एक गरीब पसमांदा इलाका है। उड़ी के दक्षिण में जाने वाली सड़क प्रसिद्व हाजीपीर पास को पार कर पुंछ तक चली गयी है। 1965 के युद्व में मेजर दयाल ने एक असंभव से अभियान में इस पास पर कब्जा किया था। ताशकन्द वार्ताओं में हाजीपीर को पाकिस्तान को दे देना हमारी कूटनीति की बड़ी विफलताओं में से एक है। अगर यह मार्ग होता तो उड़ी को पुंछ राजौरी, और जम्मू से जोड़ने का हमारे पास एक विकल्प उपलब्ध होता। साथ ही इन पर्वतीय जिलों को विकास की एक इकाई के रूप में गठित करना भी आसान होता। मैने अपने सैन्य जीवन की शुरूआत उड़ी की इन्ही चीड़, देवदारों की पहाडियो से की थी। इतने वर्षो बाद एसेम्बली चुनावांे में दुबारा यहाॅ आने का मौका मिला। मैं हाजीपीर के सामने की उन पहाडि़यों पर भी गया जहाॅ मैं रहा था। देवदारांे के वे ऊॅचे दरख्त, जिनसे चाॅदनी का झरना बहा करता था, भूकम्प में गिर गये। बंकरे भी नई है। हाॅ, उस पोस्ट पर अब तिरंगा भी लहराने लगा है। सेना पहले से ज्यादा सजग, सन्नद्ध, है। घुसपैठियों के कारण सैन्य गतिविधियाॅ पहले से कहीं ज्यादा है। 
आसपास के गाॅंवों को देखने से अन्दाजा लगा कि विकास की रोशनी अभी भी यहाॅं तक नहीं पहुॅंची है। एक स्थानीय ने बताया कि झेलम तो श्रीनगर से यहाॅ तक आ जाती है लेकिन वहाॅ से चली विकास की नदी तो इन पहाड़ों से पहले ही सूख जाती है। बारामूला जिले के इस पर्वतीय इलाके में उड़ी, बुनियार, तहसीलें है। इसी तरह इसके उत्तर में कुपवाड़ा जिला है। इसमें यदि पुॅछ और राजौरी के कुछ इलाकों को भी मिला दिया जाये तो घाटी के पश्चिमी पर्वतीय जिलों की एक श्रृंखला बन जाती है। कुपवाड़ा, बारामूला (आशिंक), पुॅछ, राजौरी (आंशिक) इन चार पर्वतीय सीमान्त जिलों में विकास की समस्याओं, के अलावा संस्कृति, भाषा में भी काफी आपसी समानतायें है। इन जिलों के पहाड़ी इलाकों की कुल आबादी भी करीब 20 लाख के निकट पहुॅचती है जिनमंे आधे से अधिक गूजर व बकरवाल है। इनकी पहचान घाटी से अलग है। भाषा पहाड़ी गोजरी पंजाबी है। पशु, भेड़ बकरी पालन परंपरागत व्यवसाय है। यदि यह क्षेत्र केन्द्रशासित प्रदेश का स्वरूप ले सके तो विकास की गति तीव्र हो जायेगी। लद्दाख को केन्द्रशसित बनाने का प्रस्ताव लम्बित है, उसके साथ ही पश्चिमी कश्मीर पर भी विचार करना चाहिए। यहाॅ गरीबी अधिक है, रोजगार के अवसर कम है। सड़कांे, सम्पर्क मार्गों, बिजली, पेयजल की समस्यायें है। अतः राज्य व केन्द्र के स्तर से विशेष प्रोत्साहन की आवश्यकता है। गूजर, बकरवाल पशुपालक समाज के लिये घाटी में कोई विशेष सहानुभूति नहीं उमड़ती। घाटी के लोग भारत-पाकिस्तान, आजादी का खेल खेलने में मशगूल रहे है, जबकि पहाड़ी क्षेत्र इस खेल से बाहर है। यहाॅ पाकिस्तानपरस्ती नहीं है। सांस्कृतिक व भाषाई दृष्टि से ये उस इलाके के ज्यादा करीब है जो हमारे तत्कालीन नेताओं की दुरभिसंधियों के कारण आज पाकिस्तान के कब्जे में चला गया है। 
1947 में भागते कबाइलियों का पीछा करती भारतीय सेना को जब अकारण उड़ी में ही रूकने का निर्देश दिया गया तो फील्ड के सैन्य अधिकारियों के लिये यह समझना बड़ा दुष्कर हुआ कि उन्हें मुजफ्फराबाद तक सामने दिख रही विजय से क्यों महरूम किया जा रहा है। मुजफ्फराबाद तक पहॅुचना सिर्फ तीन दिनों का खेल था। फिर पाकिस्तान कश्मीर राग हमेशा के लिये भूल जाता। सेनाओं को पश्चिम में मुजफ्फराबाद की दिशा मंे जाने से तो रोक ही दिया गया साथ ही दक्षिण में हाजीपीर पास से होते हुये पुंछ तक भी बढ़ने नहीं दिया गया। आज समझ में आता है कि तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व की शायद यह सोची समझी योजना थी कि कश्मीर का एक भाग पाकिस्तान के कब्जे में दे दिया जाये। कश्मीर स्वयं नेहरू जी देख रहे थे, सरदार पटेल का दखल नहीं था। इस प्रकार कश्मीर के मुख्य पहाड़ी इलाके बाहर रह जाने से ही कश्मीर की राजनीति में घाटी के लोगों और शेख अब्दुल्ला का वर्चस्व संभव हो सका। शेख को कश्मीर का वह इलाका नहीं चाहिए था जो उनको चुनौती दे सकता। इसी के तहत हाजीपीर से गुजरती उड़ी पुॅछ सड़क भी नही कब्जे में ली गई। भारतीय सेनायें हाथ पर हाथ रखे बैठी रही और उस पार से आते शरणार्थियों से भीषण अत्याचार की कहानियाॅ सुनती रही। पाकिस्तान सेना के आने से पहले मुजफ्फराबाद, मीरपुर आदि को आसानी से कब्जे में लिया जा सकता था। मुझे आश्चर्य हुआ कि सीमांत कश्मीर का आम आदमी भी इस गेम को समझता है। कश्मीर मूलतः चार परिक्षेत्रों में विभाजित है, जम्मू, लद्दाख, कश्मीर घाटी और सीमांत पश्चिमी कश्मीर। सीमांत कश्मीर को घाटी का पिछलग्गू मान लिया गया है। इस वजह से कश्मीर घाटी शेष समस्त परिक्षेत्रों पर भारी पड़ती है। इन क्षेत्रों में संतुलन कायम करना भी आवश्यक है। 
इन चार जिलों को उनकी प्रकृति, संस्कृति, घाटी से भिन्नता व विकास की विशेष समस्याओं के दृष्टिगत अगर केन्द्रशासित प्रदेश नहीं तो हिल कौंसिल का स्वरूप तो दिया ही जा सकता है जिसमें विकास सम्बन्धी निर्णय ले सकने में यहाॅ के जनप्रतिनिधि स्वयं समर्थ हो सके। घाटी से जो बचता है वही यहंाॅ तक पहंुॅचता है। घाटी से अलग इनकी पहचान अभी तक स्वीकार नही की गई। यहाॅ स्वाभाविक नेतृत्व भी नही विकसित होने दिया गया। मेहनतकश गूजरों, बकरवालांे व पहाडि़यांे का यह इलाका भारतविरोधी प्रकृति से दूर है बल्कि घाटी और पाकिस्तान के बीच में एक इंसुलेटर का काम करता है। इसके विकास के लिये विशेष प्रबन्ध किये जाने की आवश्यकता है। पाकिस्तान सीमा पर स्थित इस इलाके को केन्द्रशासित प्रदेश बनाये जाने से एक तो यहाॅ विकास का माहौल बनेगा और वहाॅ की राष्ट्रविरोधी राजनीति नेपथ्य में जानी प्रारंभ होगी। घाटी के बचे खुचे पाकिस्तानपरस्तों को समझ में आ जायेगा कि कश्मीर का भविष्य तय करना उनका काम नहीं रहा। एक सीमान्त भी है उनके और पाकिस्तान के बीच में, जिसकी आवाज असर करने लगी है। 
आर0 विक्रम सिंह
पूर्व सेनाधिकारी

2 comments:

  1. कप्तान साहब के अनुभवों का लाभ हमारी सरकार को उठाना चहिये.

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  2. सर आपका एक। लेख जम्मू कश्मीर के शासक रिनचेन पर भी था ,क्या रिपोस्ट कर सकते है

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