Tuesday, February 7, 2012

निर्बल के बल राम / न दैन्यं न पलायनम् !!




रात्रि के लगभग 12 बजे हम लोगों की कामदगिरि चित्रकूट की परिक्रमा प्रारंभ हुई, हमारे दाहिने यह पर्वत खण्ड वनवास में राम का निवास था। कुछ साधुओं के वृंद तीर्थयात्री भी साथ थे। कुछ चरित्र हैं इतिहास में जो धर्म और समाज के मेरूदण्ड बनते हैं, राम उनमें से थे। उनके जीवन का उद्देश्य धर्म ध्वजा को सुदूर दक्षिण तक ले जाना था। वे राष्ट्र के प्रथम निर्माता एवं दक्षिण विजय के सफल नायक थे। भला हो वाल्मीकि तुलसीदास जी का जिन्होंने कथाओं के आनंद के लिये भयानक मुखाकृति के राक्षसों का वर्णन किया, रावण को दसशीश बना डाला और कल्पनाओं को पंख देकर राम की सेना को वानर-भालुओं की सेना का रूप दे दिया।
तुलसी के राम, राजकुमारों के समान अत्यंत सुकुमार हैं। क्या राम वास्तव में ऐसे होंगे ? कथावाचकों के अनुराग के कारण राम कथा में स्वाभाविक अतिरंजनाये हैं। वन के कठिन जीवन में वर्षों निवास करने वाला व्यक्ति सुकुमार तो नहीं हो सकता। तो वे सुकुमार थे ही लक्ष्मण एवं ही सीता माता। वे अपने अनुयायी वनवासी समाज के लोगों जैसे ही थे। भारत का भाग्य बदलने वाली लम्बी बलिष्ठ भुजायें, महान नेता, महान रणनीतिकार, धैर्यवान् अपराजेय चरित्र! विभिन्न समाजों को धर्म में दीक्षित करते, उन्हें अपने सैनिक बनाते हुये, उन्होंने अपना वनवास व्यतीत किया होगा। हमारे सांस्कृतिक इतिहास की इस महानतम विजय में राम ने आर्यों का कोई सहयोग नहीं लिया। उन्होंने निर्बलों की सेनायें बनाई। मॉं कौशल्या वन गमन के समय राम की सुकुमार छवि देखती हैं। वन में राम के केश जटा हो गये हैं, चेहरे पर लकीरें बढ़ रही हैं। लेकिन मॉं कौशल्या राम को किशोरवय में ही देखती हैं तो सारा भक्त समाज उन्हें उसी रूप में देखता है। राम के उसी स्वरूप की पूजा होती है। मॉं के स्नेह को नहीं दिखता चेहरे का गाम्भीर्य , शरीर पर तीरों के चिन्ह, गदाओं के, तलवारों के वार। 
चित्रकूट में उन्होंने दक्षिण प्रयाण की रणनीति बनाई होगी। वे वनवासियों के देवता शिव जी को अंगीकार कर उन्हें अपना आराध्य घोषित करते हैं, सम्पूर्ण वनवासी समाज उनका हो जाता है। जाने कितने युद्धों में राम ने वनवासी सैनिकों का नेतृत्व किया होगा। कभी विजय तो कभी हार भी देखी होगी। बढ़ते सैनिकों संसाधनों के साथ उनका प्रभुत्व राज्य से साम्राज्य में परिवर्तित होता गया। राम के सैनिकों को वानर भालू कह देना तो बाबा वाल्मीकि और तुलसी महराज की अतिशय कल्पनाशीलता है। तो हनुमान वानर थे और उनका समाज। 
बढ़ते, सशक्त होते राम के जन साम्राज्य के विरूद्ध षड़यंत्रों की श्रृंखला में सीता हरण होता है। 13 वर्ष के वनवास में सीता जी कोई सुकुमारी कोमलांगी नहीं थी। आदिवासी समाज के साथ जीवन बिताकर वे कठोर शरीर की अत्यंत जुझारू महिला हो चुकी होंगी। कहीं से जल लाना है तो कहीं कटार से कंदमूल काटना है। वे वन के हिस्रपशुओं से अक्सर जूझती भी होगी। पति के संघर्ष में साथ साथ चल रही सीता का जीवन यहॉं से महानता को स्पर्श करने लगता है। अयोध्या और जनकपुर के वैभव उनके लिये व्यतीत इतिहास के वे भाग थे शायद जिसकी याद भी उन्हें रह गई हो। रावण से जूझते वक्त अपनी कटार से उस दुष्ट के सीने पर उन्होंने जाने कितने वार किये होंगे। रावण की इस मूर्खता ने राम में उस ऊर्जा का संचार किया जिसने धर्म और भारत की दिशा बदल डाली। राम की वेदना के विस्तार में एक राष्ट्र अस्तित्व में आने लगता है। शिव भावविह्वल है, वे जानते हैं कि राम अप्रतिम कष्ट में हैं, लेकिन पार्वती को बहलाने के लिये कहते हैं कि राम, लीला कर रहे हैं। बाबा तुलसी जानते हैं कि राम दारूण दुःख में हैं। विधाता ने क्या लिखा है क्या मालूम, लेकिन अपने आंसू छिपाते हुये वे समस्त समाज को बताते हैं कि प्रभु लीला कर रहे हैं। राम तो जीवटता के शिखर हैं। नैराश्य और दुःख की सीमाओं तक पहुंचे हुये राम वापस आते हैं पूरी शक्तियों के साथ। किष्किंधा में हनुमान का राम से मिलना राम कथा के सबसे आह्लादकारी क्षणों में से है। हनुमान का मिलना वह भी विप्र रूप में।         
हनुमान और उनकी दक्षिण-मध्य भारतीय योद्धा जाति को वानर कहा जाना बाद की कथा है। एक तो कारण था कि कथा के आनंद के लिये उनका वानर होना बड़ा लोकप्रिय हुआ। पूॅंछ में आग लगाकर लंका दहन, बहुत मनोरंजक कथा-दृष्य बन पड़ा है। वानर होते हुये भी हनुमान जी आज तक वानरत्व ढोते चले जा रहे हैं। उनके समाज को वानर बनाये जाने का मूल कारण कहीं अधिक गंभीर है। वैदिक काल से ही ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों में वर्चस्व का विवाद चलता रहा है। वशिष्ठ-विश्वामित्र विवाद इसी की एक प्रतीक कथा है। विश्वामित्र का ब्रम्हर्षि बनने का प्रयास तत्कालीन ऋषि समाज को रास नहीं आया। आने वाले समय में समाजिक वर्चस्व का युद्ध बढ़ता गया। राम के सफल दक्षिण अभियान, रावण वध ने राम को अवतारी पुरूष की श्रेणी में खड़ा कर दिया। अब क्षत्रिय शिरोमणि मर्यादा पुरूषोत्तम राम की सेनाये तो क्षत्रिय ही होती। ऋषि समाज के सम्मुख राम के समस्त युद्धक सैनिक समाज को क्षत्रिय स्वीकार करना बाध्यता थी। लेकिन इस विशाल समाज को क्षत्रिय स्वीकार करने से दक्षिण में सामाजिक वर्चस्व क्षत्रियों के हाथ में चला जाता। अतः दक्षिण में क्षत्रियों की संख्या को सीमित रखने के उद्देश्य से, कदाचित् हनुमान एवं हनुमान के समाज को क्षत्रिय स्वीकार करना पड़े, वानर कह दिया गया। वानर होकर सम्पूर्ण समाज क्षत्रियत्व क्या वर्ण व्यवस्था से ही बाहर हो गया। इस धार्मिक पैंतरेवाजी से वह समाज जो राम का सैनिक होने के कारण क्षत्रिय कहा जाता शूद्र का शूद्र ही रह गया। इसी षड़यंत्र का परिणाम है कि दक्षिण भारत में आज क्षत्रिय समाज नगण्य है। अपने अभियान के राम निषाद, भील समाज को अपनाते हैं वनवासी समाज की संस्कृति एवं परंपराओं को भी धर्म में स्थान देते हुये रामेश्वरम् पहुॅंचते पहुॅंचते वे पूर्ण शिव भक्त हो जाते हैं।
कामदगिरि चित्रकूट की परिक्रमा मेें कहीं बल्वों का मद्धिम प्रकाश और कहीं निविड़ अंधकार है। राम यहॉं कितने सत्य, कितने निकट लगते हैं। आज राम ईश्वरस्वरूप नहीं बल्कि एक अग्रज मार्गदर्शक जैसे हैं, जिनका तरकश उठाये अनुसरण करते हुये जन्म-जन्मांतरों तक चला जा सकता है।


1 comment:

  1. Sir Ji !
    Aapne bilkul sach likha hai ki आज राम ईश्वरस्वरूप नहीं बल्कि एक अग्रज व मार्गदर्शक जैसे हैं, जिनका तरकश उठाये अनुसरण करते हुये जन्म-जन्मांतरों तक चला जा सकता है।
    so thanx !

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