Monday, May 12, 2014

संस्कृति का अधूरा सपना

( ६ मई '१४ को दैनिक जागरण में प्रकशित )
भारत मूलत: राजनीतिक नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक राष्ट्र है। संस्कृति की सरहदें नहीं होती। इसी कारण इस सांस्कृतिक राष्ट्र ने सदियों से जमीन पर अपनी सीमाएं नहीं खींची। सुदूर पूर्व में श्रीविजय, इंडोनेशिया और बौद्ध चीन-जापान इस सांस्कृतिक विस्तार के गवाह हैं, लेकिन गजनवियों और गोरियों के हमलों के बाद संस्कृतियों, धर्मो के टकराव ने राजनीतिक सत्ताओं की भूमिका को सर्वशक्तिशाली बना दिया। कुछ पंथ ऐसे हैं जो तलवारों और सत्ताओं के सहारे बढ़े हैं, लेकिन भारत धर्म (‘हिंदू’ दरअसल विदेशियों द्वारा दिया गया नाम है) हजार वर्षो से अधिक समय से राजाश्रय से दूर सत्ता और शासकों के हमलों, झंझावातों को झेलते हुए भी अडिग रहा है। भारत घायल तो हुआ पर खड़ा रहा। न झुका, न टूटा। भारत धर्म और भारत संस्कृति की शक्ति ने राजनीतिक सत्ताओं, शहंशाहों, लार्डो को उनकी सीमाएं, उनकी औकात भी बताई। लेकिन यह भी सत्य है कि पिछले हजार सालों में धर्म और संस्कृति यहां भीषण दबाव में रही है। यह राष्ट्र राजसत्ताओं के कारण नहीं, बल्कि संस्कृति की आंतरिक शक्ति के कारण सुरक्षित रहा है। विचार उठता है कि देश की धर्म-संस्कृति का एक स्वीकार्य केंद्र जिसे हम सांस्कृतिक राजधानी कह सकें, कौन सा है? राजनीति ने तो अपनी राजधानी दिल्ली न जाने कब से कायम कर रखी है, लेकिन सांस्कृतिक राजधानी? हमारी सांस्कृतिक राजधानी निर्विवाद रूप से शिव की प्रिय नगरी काशी, वाराणसी है। काशी धर्म संस्कृति का अजस्न स्त्रोत है। मध्यकाल में काशी ने एक बड़ी कीमत भी अदा की है। इस सांस्कृतिक नगर की सीमाएं इतनी विस्तीर्ण हो कि देश के प्रत्येक राज्य के लिए यहां पर्याप्त भूमि उपलब्ध हो सके। एक सांस्कृतिक राष्ट्र के लिए जरूरी है कि वह काशी को भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में मान्यता दे। देश जोड़ने के लिए सांस्कृतिक मंच राजनीति से कहीं अधिक प्रभावशाली सिद्ध होगा। धर्म बनाम सेक्युलरिज्म की बहस अभी भी कायम है। अगर एक विभाजन के बाद भी भारत अनायास दो राष्ट्रों की मानसिकता से ग्रसित होने का आभास देता है तो इसके कारण राजनीतिक हैं। जिन्ना ने कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं और वे साथ नहीं रह सकते। यही तर्क जिन्ना के पाकिस्तान और भारत विभाजन का आधार बना। हमने मान लिया था कि वह मुसलमान जो जिन्ना के देश नहीं गया वह जिन्ना केदो राष्ट्रवाद को खारिज करता है। उम्मीद हुई कि सांप्रदायिकता के घर बांट लेने के बाद इस देश में नफरत का जहरीला माहौल खत्म हो जाएगा। एक विभाजन के बाद भी सांप्रदायिकता की जड़ें खत्म न होने की वजह क्या हो सकती है ? बहुत पहले इस देश पर सिकंदर का हमला हुआ था। लेकिन सिकंदर की तलवार के घाव बहुत पहले भर गए। हमला मुहम्मद गोरी, महमूद गजनवी का भी हुआ था। लेकिन उन हमलों के बरछे आज भी हमारे सीनों में धंसे हुए हैं। हमलावर तो दोनों थे तो फिर फर्क क्यों है? सिकंदर तो वापस चला गया लेकिन उसके सैनिक, सेनापति और उनकेसाथ आया यूनानी जनसमुदाय वक्त के साथ भारत की संस्कृति समाज में घुल-मिल गए। उन्होंने हमें यूनानी देवताओं थोर, ड्यूस का पुजारी बनाने का प्रयास नहीं किया। लेकिन गोरियों, गजनियों और तुगलकों ने हमारी संस्कृति से जुड़ना, हमारा भाग बनना गवारा नहीं किया, बल्कि तलवार के दम पर हमारे ही समाज को खंडित कर एक समानांतर समाज खड़ा करना प्रारंभ किया। इससे पहले आम समाज में सत्ता का इस हद तक दखल देखा नहीं गया था। देखा जाए तो सनातनधर्मी समाज से ही बौद्ध पंथ का प्रादुर्भाव हुआ था, लेकिन हिंदू, बौद्धों में जो भी विवाद मतांतर रहे वे किसी सामाजिक अलगाव के कारण नहीं बने। लेकिन हजार साल के सहअस्तित्व के बाद भी जिन्ना की राजनीति ने कहा कि हिंदू-मुसलमान दोनों साथ कैसे रह सकते हैं। जिन्ना की सोच ने अलगाव के कारण खोज लिए। यह कैसे होता है कि धर्म परिवर्तित समाज अपनी संस्कृति की स्मृति को पूरी तरह भूल जाए। कैसे अपनी ही संस्कृति, परंपराएं, भाषाएं उनके लिए शत्रुवत हो जाती हैं? बौद्ध बनने के बाद नवबौद्ध सनातनधर्मी समाज के शत्रु तो नहीं बने। गैर-मुल्की सोच के जिंदा रहते हम एक राष्ट्र की कल्पना कैसे कर सकेंगे? जो अपने को आक्रमणकारियों के साथ बतौर शासक आया हुआ मानते हैं उनके मनोभावों को समझा जा सकता है। कम्युनिज्म के प्रादुर्भाव ने आधुनिक समाज पर युगांतरकारी प्रभाव डाला। एक नए धर्म के समान देखते ही देखते आधुनिक विश्व का अच्छा खासा भाग कम्युनिज्म के प्रभाव में आ गया। यह अलग बात है कि सर्वहारा की पक्षधर यह व्यवस्था तानाशाही मनोवृत्तियों का शिकार हो गई। लेकिन धर्म, संस्कृतियों और राष्ट्रीय पहचान की विरोधी इस नई राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था का कभी अंत भी होता दिखेगा, तब सोचा भी नहीं जा सकता था। आज कम्युनिज्म इतिहास की किताबों में है। कारण? यह व्यवस्था मानव समाज पर बलपूर्वक थोपी गई व्यवस्था थी। यही भविष्य उन पंथों का भी है जो लोभ, लालच, सत्ता एवं तलवारों के सहारे फैलाए गए थे। पंथ, मजहब कोई भी हो, वह अपने मूल आधार, अपने राष्ट्र के विरुद्ध खड़ा तो न दिखाई दे। भारत संस्कृति को इसका जवाब खोजना है और इसके रास्ते बनाने हैं। धर्म अलग हो सकते हैं, लेकिन हमारी संस्कृति, भाषा एक होनी चाहिए। पुरातन संस्कृतियों को तोड़ने का प्रयास समाज और राष्ट्र के विरुद्ध जाता है। संस्कृतियां साझा नहीं होतीं, वे एक होती हैं। समग्र राष्ट्र को साथ लाने के लिए सांस्कृतिक एकता की पुनस्र्थापना आवश्यक है। इसी सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए जरूरत है एक अदद सांस्कृतिक राजधानी की ! 
चुनाव का समय है। देश ने तुमसे बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं। काशी अपने भक्तों, प्रतिनिधियों की परीक्षा लेती रही है एवं उनके अहंकार भी तोड़ती रही है। विश्वास न हो तो परंपराओं से प्रस्थान करने वाले काशी के प्रतिनिधि बुद्ध, तुलसी, कबीर से पूछ लिया जाए कि उन पर क्या बीती थी। काशी की मार के भय से काशी से पलायित मत हो जाना साथी! अगर संवैधानिक प्रावधान भी करने हों तो भी काशी को भारत की सांस्कृतिक राजधानी घोषित करने से गुरेज मत करना। फिर उसके बाद सफलताओं का आकाश तुम्हारे लिए है। 

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