Tuesday, May 24, 2016

यहां एक और कश्मीर

कैप्टन आर. विक्रम सिंह 

पश्चिमी कश्मीर की ऊँची पहाड़ियों में तेज बहती झेलम के ऐन किनारे स्थित उड़ी में बहुत कुछ नही बदला है। बहुत साल पहले जब मैने यहां बतौर लेफ्टिनेंट अपनी आर्टिलरी यूनिट ज्वाइन की थी, तब यह गांव ही हुआ करता था। आज यह एक छोटे कस्बे जैसा है। इन क्षेत्रों में कोई टूरिस्ट नही आता। उसे तोशा मैदान, देवदार के जंगलों, नौगांव के लोकटबंगस की खूबसूरती नही मालूम। आम टूरिस्ट केरन घाटी में किशनगंगा के तट तक नही पहुँचता। शेष भारत के लिए सिर्फ कश्मीर घाटी ही कश्मीर  है। 2005 के भूकम्प ने उड़ी व आसपास के पहाड़ी ग्रामों को बहुत क्षति पहुंचाई। यह एक गरीब पसमांदा इलाका है। उड़ी के दक्षिण में जाने वाली सड़क प्रसिद्ध हाजीपीर पास को पार कर पुंछ तक चली गयी है। 1965 के युद्ध में मेजर दयाल ने एक असंभव से अभियान में इस पास पर कब्जा किया था। ताशकन्द वार्ताओं में हाजीपीर को पाकिस्तान को दे देना हमारी कूटनीति की बड़ी विफलताओं में से एक है। अगर यह मार्ग होता तो उड़ी को पुंछ राजौरी, और जम्मू से जोड़ने का हमारे पास एक विकल्प उपलब्ध होता। साथ ही इन पर्वतीय जिलों को विकास की एक इकाई के रूप में गठित करना भी आसान होता। मैने अपने सैन्य जीवन की शुरूआत उड़ी की इन्ही चीड़ देवदारों की पहाड़ियों से की थी। इतने वर्षों बाद एसेम्बली चुनावों में दुबारा यहां आने का मौका मिला। मैं हाजीपीर के सामने की उन पहाड़ियों पर भी गया, जहां मैं रहा था। देवदारों के वे ऊँंचे दरख्त, जिनसे चांदनी का झरना बहा करता था, भूकम्प में गिर गये। बंकरे भी नई हैं। हां उस पोस्ट पर अब तिरंगा भी लहराने लगा है। सेना पहले से ज्यादा सजग, सन्नद्ध है। घुसपैठियों के कारण सैन्य गतिविधियां पहले से कहीं ज्यादा है। 
आसपास के गांवों को देखने से अन्दाजा लगा कि विकास की रोशनी अभी भी यहां तक नही पहुंची है। एक स्थानीय ने बताया कि झेलम तो श्रीनगर से यहां तक आ जाती है, लेकिन वहां से चली विकास की नदी तो इन पहाड़ों से पहले ही सूख जाती है। बारामूला जिले के इस पर्वतीय इलाके में उड़ी, बुनियार तहसीलें है। इसी तरह इसके उत्तर में कुपवाड़ा जिला है। इसमें यदि पुंछ और राजौरी के कुछ इलाकों को भी मिला दिया जाए तो घाटी केपश्चिमी पर्वतीय जिलों की एक श्रृंखला बन जाती है। कुपवाड़ा, बारामूला (आंशिक), पुंछ, राजौरी (आंशिक) इन चार पर्वतीय सीमान्त जिलों में विकास की समस्याओं के अलावा संस्कृति, भाषा में भी काफी आपसी समानतायें हैं। इन जिलों के पहाड़ी इलाकों की कुछ आबादी भी करीब 20 लाख के निकट पहुंचती है, जिनमें आधे से अधिक गूजर व बकरवाल है। इनकी पहचान घाटी से अलग है। भाषा पहाड़ी गोजरी पंजाबी है। पशु भेड़ बकरी पालन परम्परागत व्यवसाय है। यदि यह क्षेत्र केन्द्रशासित प्रदेश का स्वरूप ले सके, तो विकास की गति तीव्र हो जाएगी। लद्दाख को केन्द्रशासित बनाने का प्रस्ताव लम्बित है, उसके साथ ही पश्चिमी कश्मीर पर भी विचार करना चाहिए। यहां गरीबी अधिक है, रोजगार के अवसर कम हैं। सड़कों, सम्पर्क मार्गो, बिजली, पेयजल की समस्यायें हैं। अतः राज्य व केन्द्र के स्तर से विशेष प्रोत्साहन की आवश्यकता है। गूजर, बकरवाल पशुपालक समाज के लिए घाटी में कोई विशेष सहानुभूति नही उमडती है। घाटी के लोग भारत-पाकिस्तान, आजादी का खेल खेलने में मशगूल रहे हैं, जबकि पहाड़ी क्षेत्र इस खेल से बाहर है। यहां पाकिस्तानीपरस्ती नही है। सांस्कृतिक व भाषाई दृष्टि से ये उस इलाके के ज्यादा करीब हैं, जो हमारे तत्कालीन नेताओं की दुरभिसंधियों के कारण आज पाकिस्तान के कब्जे में चला गया है। 
1947 में भागते कबाइलियों का पीछा करती भारतीय सेना का जब आकरण उड़ी में ही रूकने का निर्देश दिया गया तो फील्ड के सैन्य अधिकारियों के लिए यह समझना बड़ा दुश्कर हुआ कि उन्हें मुजफ्फराबाद तक सामने दिख रही विजय से क्यों महरूम किया जा रहा है। मुजफ्फराबाद तक पहुंचना सिर्फ तीन दिनों का खेल था। फिर पाकिस्तान कश्मीर राग हमेशा के लिए भूल जाता। सेनाओं को पश्चिम में मुजफ्फराबाद की दिशा में जाने से तो रोक ही दिया गया, साथ ही दक्षिण में हाजीपीर पास से होते हुए पुंछ तक भी बढ़ने नही दिया गया। आज समझ में आता है कि तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व की शायद यह सोची समझी योजना थी कि कश्मीर का एक भाग पाकिस्तान के कब्जे में दे दिया जाए। कश्मीर स्वयं नेहरू जी देख रहे थे, सरदार पटेल का दखल नही था। इस प्रकार कश्मीर के मुख्य पहाड़ी इलाके बाहर रह जाने से ही कश्मीर की राजनीति में घाटी के लोगों और शेख अब्दुल्ला का वर्चस्व सम्भव हो सका। शेख को कश्मीर का वह इलाका नही चाहिए था, जो उनको चुनौती दे सकता। इसी के तहत हाजीपीर से गुजरती उड़ी पुंछ सड़क भी नही कब्जे में ली गयी। भारतीय सेनायें हाथ पर हाथ रखे बैठी रही और उस पास से आते शरणार्थियों से भीषण अत्याचार की कहानियां सुनती रही। पाकिस्तान सेना के आने से पहले मुजफ्फराबाद, मीरपुर आदि को आसानी से कब्जे में लिया जा सकता था। मुझे आश्चर्य हुआ कि सीमांत कश्मीर का आम आदमी भी इस गेम को समझता है। कश्मीर मूलतः चार परिक्षेत्रों में विभाजित है-जम्मू, लद्दाख, कश्मीर घाटी और सीमांत पश्चिमी कश्मीर। सीमांत कश्मीर को घाटी का पिछलग्गू मान लिया गया है। इस वजह से कश्मीर घाटी शेष समस्त परिक्षेत्रों पर भारी पड़ती है। इन क्षेत्रों में संतुलन कायम करना भी आवश्यक है। 
झीलों, शिकारों, बागों, जिंदाबाद-मुर्दाबाद के माहौल से दूर चीड़-देवदारों, गूजर बकरवालों का एक और कश्मीर भी है, जो अब तक हमारी निगाहों में ओझल रहा है। कश्मीर घाटी के इन चार जिलों को उनकी प्रकृति, संस्कृति, घाटी से भिन्नता व विकास की विशेष समस्याओं के दृष्टिगत अगर केन्द्रशासित प्रदेश  नही तो हिल कौंसिल का स्वरूप दिया ही जा सकता है, जिसमें विकास सम्बन्धी निर्णय ले सकने में यहां के जनप्रतिनिधि स्वयं समर्थ हो सके। घाटी से जो बचता है, वही यहां तक पहुंचता है। घाटी से अलग इनकी पहचान अभी तक स्वीकार नही की गयी। यहां स्वाभाविक नेतृत्व भी नही विकसित होने दिया गया। मेहनतकश गूजरों, बकरवालों व पहाड़ियों का यह इलाका भारत विरोधी प्रकृति से दूर है, बल्कि घाटी और पाकिस्तान के बीच में एक इंसुलेटर का काम करता है। इसके विकास के लिये विशेष प्रबन्ध किए जाने की आवश्यकता है। पाकिस्तान सीमा पर स्थित इस इलाके को केन्द्रशासित प्रदेश बनाये जाने से एक तो यहां विकास का माहौल बनेगा और कश्मीर घाटी की राष्ट्रविरोधी राजनीति नेपथ्य में जानी प्रारम्भ होगी। घाटी के पाकिस्तानपरस्तों को समझ में आ जाएगा कि कश्मीर का भविष्य तय करना उनका काम नही रहा। एक सीमान्त भी है उनके और पाकिस्तान के बीच में, जिसकी आवाज असर करने लगी है।

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(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य हैं)

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