Tuesday, May 24, 2016

साक्षरता - स्वच्छता - सहकारिता



( कैप्टेन आर0विक्रम सिंह )

समस्यायें चिन्हित करना एक बात है, समाधान के रास्ते खोजना दूसरी। हमारे गांवों में अशिक्षा है, बेरोजगारी है, बीमारियां हैं, जमीनों के विवाद, मुकदमे हैं। जात-पांत की सामाजिक समस्यायें अपनी जगह बरकरार हैं। हां शोषण का वह रंग अब नही है, जो प्रेमचन्द के उपन्यासों में मुखर होता है, बल्कि बराबरी की लागडाँट है। कथित उच्च वर्ग में श्रम से अरूचि, दलित वर्ग में शिक्षा से अरूचि भी वहीं की वहीं है। नगरों की ओर पलायन रूका नही है। बेरोजगारी है लेकिन रोजगार सम्बन्धी कोई शिक्षा नही है। समाधान ? वह भी कोई राकेट साइंस नही है। अगर ग्राम के इंटर पास लड़के को कृषि सम्बन्धी व्यावहारिक जानकारी हो जाए तो वह अपने परिवार की भूमि पर सही व वैज्ञानिक तरीके से खेती, बागवानी कर सके। अगर हमारे परिवार में 1 से 5 एकड़ भूमि है तो हमे कोई बताए कि उस पर किस प्रकार आदर्श  कृषि, पशुपालन, बागवानी आदि की जा सकती है। इसकी विधियां बताई जाए, लेकिन ऐसी न तो कोई शिक्षा है न ही ऐसी शिक्षा सोची ही गयी है। इस कारण कृषि सम्भावनाहीन कार्य मान लिया गया है। गांवो, कस्बो में कोई आई0टी0आई जैसा भी संस्थान नही, जो कृषि कार्य की शिक्षा दे सके। फिर कृषि आधारित रोजगार जैसे बीज, खाद, कृषि उपकरण, पशु आहार आदि का व्यवसाय भी तो है। हर गांव में अनाज आढ़त के कारोगार की गुंजाइशें  है। लेकिन खेती का माल बाजार के बनिए के पास ही जाएगा। उपज के सही दाम के लिए इस व्यवसाय का एकाधिकार समाप्त होना भी आवष्यक है। बैंक सहयोग दे तो ग्रामीण युवक भी आढ़त का काम करे, लेकिन ऐसा नही होता। सहकारी बैंक निष्क्रिय है। उनकी कोई भूमिका ही नही है।
गांवों में राजनीतिक, जातीय जागरूकता की बहुतायत है। अभी पंचायत चुनाव हुए हैं। हमारा प्रधान सारे गांव का प्रधान नही हो पाता। वह अपने समर्थकों का ही प्रधान बना रहता है। व्यवस्था के समर्थकवादी होने के कारण गँवई पार्टीबंदी कभी खत्म नही होती। अशिक्षा, बेरोजगारी से उसका कोई वास्ता ही नही है। लगभग हर विभाग में ग्रामस्तरीय संविदा कर्मचारी भी बहुत हो गये हैं। चूंकि स्कूली सर्टिफिकेट फर्जी मिल जाते हैं, इसलिए साक्षर होने की जरूरत ही नहीं। अंगूठाछाप महिलाएं भी आशा बहू, आंगनबाड़ी कार्यकत्री बनी हुई हैं। परिणाम यह है कि स्वास्थ्य पोषण की आवष्यक व्यवस्थायें नेपथ्य में चली जाती हैं और पंजीरी बाजार में बिकती मिलती है। अकसर हमारे विभिन्न ग्रामीण विभागीय कर्मियों में प्रशिक्षण के साथ जिम्मेदारी का भी अभाव है। जब आधारभूत योग्यता ही नही तो फिर प्रशिक्षण कैसा ? ऐसे संस्थान हैं भी नही, जो ग्रामीण सेवाओं से जुड़े कार्यो में प्रशिक्षण देते हों।
तात्पर्य यह है कि अगर ग्रामों में रोजगार की सम्भावनायें बढ़ानी है और सेवाओं का स्तर सुधारना है तो रोजगार व सेवाओं की स्थानीय आवष्यकताओं के अनुरूप प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी जरूरी है। ग्रामों के लिए कोई कृषि व्यवसाय सम्बन्धी आई0टी0आई0 जैसे संस्थान नही हैं। युवकों को व्यवसायिक मार्गदर्शन किस प्रकार दिया जाए ? विचार स्वयं में समाधान नही है। समाधान तो विचारों के कार्यरूप में परिणत कर पाने पर निर्भर है। प्रश्न यह है कि ग्रामीण रोजगार व सेवाओं के प्रति हमारी प्रशासनिक मशीनरी व पंचायती व्यवस्था की प्रतिबद्धता है या नही। अभी एक ग्राम में भ्रमण के दौरान देखा गया कि एक आंगनबाड़ी कार्यकत्री अशिक्षित हैं। लेकिन वे प्रधान की माता जी थीं। त्यागपत्र के लिए कहे जाने पर बात उठी कि विरोधी गुट की एक आंगनबाड़ी कार्यकत्री भी अंगूठा छाप है, उनसे भी इस्तीफा लिया जाए, तब वे अपना इस्तीफा देंगी। जाहिर है कि हमारे गांवों में सेवाएं गौण हैं, चौबीस घंटे की राजनीति जारी है। हर बात गुटबंदी की भेंट चढ़ जाती है।
इन सबके बीच सवाल बनता है कि लोकतांत्रिक अथवा पंचायती शक्तियों का उपयोग किस प्रकार विकास के लिए किया जाए। हमारे जनपद श्रावस्ती में तीन में से दो महिलाएं निरक्षर हैं। निरक्षरता का हमारा यह अनुपात शायद देश के आदिवासी क्षेत्रों से भी नीचे है। पुरूषों में यह दर 50 प्रतिशत है, लेकिन इतनी भीषण निरक्षरता को लेकर मैने किसी पंचायती नेता को चिंतित परेशान नही देखा। अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, सफाई, टीकाकरण जैसी सेवाओं में गुणवत्ता का अभाव किसी की चिंता का कारण नही बन सका। हां, यदि किसी अकर्मण्य आंगनबाड़ी कार्यकत्री, ए0एन0एम0 अथवा आशा बहुओं को हटाया जाएगा तो उनकी पैरोकारी में बहुत से लोग खडे़ हो जायेंगे।
अशिक्षा है तो स्वास्थ्य स्वच्छता प्रति जागरूकता का अभाव भी है। स्वच्छता हमारी प्रवृत्ति क्यों नही है ? आज इक्कीसवीं सदी में हम एक हाथ में मोबाइल लिए दूसरे में लोटा लिए खेतों में शौच जा रहे हैं। किसने मना किया घरों में शौचालय में नही होंगे ? आज ग्रामीण समाज को शौचालय के उपयोग के लिए प्रेरित करने में जितना प्रयास करना पड़ रहा है, उतने में तो देश में सांस्कृतिक क्रांति हो जाती। टीकाकरण में हमारा जिला प्रदेश में क्या, शायद देश में भी सबसे पीछे हो। इस बात से हमारे पी0एच0सी0 प्रभारी डाक्टरों को कोई शर्मिदंगी नही होती। जबसे शौचालयों का अभियान चला है तो स्वच्छता के लिए वातावरण बनना शुरू हुआ है। लेकिन इसे जनआंदोलन बनाना जरूरी है, जिससे सिर्फ अनुदानों पर ही स्वच्छता का अभियान निर्भर न हो। 
आजादी के पहले से ही विकास के सबसे महत्वपूर्ण माध्यमों में सहकारिता अथवा कोआपरेटिव इकाइयों की गणना होती रही है। देश के अन्य प्रदेशो  महाराष्ट्र, गुजरात में विकास इंजन बन चुकी सहकारिता हमारे यहां प्रारम्भ में ही दम तोड़ गयी। सहकारिता की असफलता से हमारे गांव विकास के एक महत्वपूर्ण अस्त्र से महरूम हो गये हैं। कितना आसान है सहकारिता कोआपरेटिव की बात करना, लेकिन विभाजित खण्डित मानसिकता के हमारे गांवों में अब यह मुष्किल काम हो गया है। बैंक छोटे कर्ज नही देते, जबकि धन की आवष्यकता होने पर गांव का आदमी धनाढ्य दबंग अर्थात लठैत साहूकार से दस रूपया प्रति सैकड़ा प्रतिमाह पर कर्ज लेने को मजबूर होता है। अंततः अपनी जमीन दे बैठता है। गांवो में माइक्रो फाइनेंस इकाइयाँ जरूरी हैं। श्रावस्ती जिले में बैंकों की जमा धनराशि से कर्ज का अनुपात मात्र 30 प्रतिशत है। 70 प्रतिशत पूंजी, जाहिर है कि बैंक बाहर निवेश कर रहे हैं। अगर सहकारिता की बात करे तो यह अनुपात 100 प्रतिशत पूंजी तक हो सकता है। इस सोच को ग्राम सहकारिता बैंक में बदलने की जरूरत है। यह ग्रामीण समाज को बड़ी वित्तीय राहत दे सकता है, लेकिन सहकारिता का माहौल बनाकर यहां तक पहुंचने का रास्ता बहुत लम्बा है। जाने-माने अर्थशास्त्री डा0 युनूस सलीम ने ग्रामीण सहकारिता और माइक्रो लोन के जरिये बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था का चेहरा बदल दिया है। हमें अशिक्षा के विरूद्ध स्वास्थ्य-स्वच्छता व सहकारिता के लिए आंदोलन की आवश्यकता है। निरक्षरता को लेकर महिलाओं ने अपनी पीड़ाएं व्यक्त की है। हमारे बाप ने हमें सिर्फ बरतन मांजने, कपड़े धोने के लिए पैदा किया था। अब साक्षर होकर क्या करेंगे ?
हमारी समस्याओं के समाधान अल्पकालीन नही हैं। यह गांवों के माहौल को आमूलचूल बदलने वाली बात है। साक्षरता की तड़प कैसे पैदा हो ? सहकारिता कैसे ग्रामीण सशक्तीकरण का माध्यम बने ? ये बड़े सवाल नही है। समाधान की राहें भी है, संसाधनों की भी कमी नही है। कमी इच्छाशक्ति व हमारी सोच में है। हर गांव में प्राइमरी स्कूल है, अध्यापकगण प्रतिदिन एक घंटा अतिरिक्त समय देकर निरक्षरों को साक्षर बना सकते हैं। इंटरकालेजों और प्राविधिक संस्थानों में अतिरिक्त संसाधनों से कृषि व सम्बन्धित व्यवस्था की व्यवहारिक शिक्षाएं दी जा सकती हैं। ग्रामस्तरीय कर्मचारियों, संविदाकर्मियों के जनपदस्तरीय चयन व प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की जा सकती है। ग्राम सभाओं की नियमित खुली बैठकें सहमति सहकार के रास्ते खोल सकती है। सहकारिता का अर्थशास्त्र भी समझाया जा सकता है, लेकिन यह तब होगा, जब हम इस दिशा में सोचना प्रारम्भ करेंगे। हमारा अभियान साक्षरता, स्वच्छता व सहकारिता के लिए हो। यह मांग जमीन में उठनी चाहिए। गांवों को बदलने का आंदोलन प्रारम्भ करने के लिए अन्तर्निहित स्वप्रेरणा की शक्तियों का व्यक्त होना अत्यन्त आवष्यक है। वरना पिछले बहुत से वर्षो में स्थानीय विकास प्रषासन एवं पंचायती प्रतिनिधियों का जो गठजोड़ विकसित हुआ है, वह ग्रामीण परिवर्तन की सम्भावनाएं जगाता तो नही दिख रहा।
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(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य हैं)

यहां एक और कश्मीर

कैप्टन आर. विक्रम सिंह 

पश्चिमी कश्मीर की ऊँची पहाड़ियों में तेज बहती झेलम के ऐन किनारे स्थित उड़ी में बहुत कुछ नही बदला है। बहुत साल पहले जब मैने यहां बतौर लेफ्टिनेंट अपनी आर्टिलरी यूनिट ज्वाइन की थी, तब यह गांव ही हुआ करता था। आज यह एक छोटे कस्बे जैसा है। इन क्षेत्रों में कोई टूरिस्ट नही आता। उसे तोशा मैदान, देवदार के जंगलों, नौगांव के लोकटबंगस की खूबसूरती नही मालूम। आम टूरिस्ट केरन घाटी में किशनगंगा के तट तक नही पहुँचता। शेष भारत के लिए सिर्फ कश्मीर घाटी ही कश्मीर  है। 2005 के भूकम्प ने उड़ी व आसपास के पहाड़ी ग्रामों को बहुत क्षति पहुंचाई। यह एक गरीब पसमांदा इलाका है। उड़ी के दक्षिण में जाने वाली सड़क प्रसिद्ध हाजीपीर पास को पार कर पुंछ तक चली गयी है। 1965 के युद्ध में मेजर दयाल ने एक असंभव से अभियान में इस पास पर कब्जा किया था। ताशकन्द वार्ताओं में हाजीपीर को पाकिस्तान को दे देना हमारी कूटनीति की बड़ी विफलताओं में से एक है। अगर यह मार्ग होता तो उड़ी को पुंछ राजौरी, और जम्मू से जोड़ने का हमारे पास एक विकल्प उपलब्ध होता। साथ ही इन पर्वतीय जिलों को विकास की एक इकाई के रूप में गठित करना भी आसान होता। मैने अपने सैन्य जीवन की शुरूआत उड़ी की इन्ही चीड़ देवदारों की पहाड़ियों से की थी। इतने वर्षों बाद एसेम्बली चुनावों में दुबारा यहां आने का मौका मिला। मैं हाजीपीर के सामने की उन पहाड़ियों पर भी गया, जहां मैं रहा था। देवदारों के वे ऊँंचे दरख्त, जिनसे चांदनी का झरना बहा करता था, भूकम्प में गिर गये। बंकरे भी नई हैं। हां उस पोस्ट पर अब तिरंगा भी लहराने लगा है। सेना पहले से ज्यादा सजग, सन्नद्ध है। घुसपैठियों के कारण सैन्य गतिविधियां पहले से कहीं ज्यादा है। 
आसपास के गांवों को देखने से अन्दाजा लगा कि विकास की रोशनी अभी भी यहां तक नही पहुंची है। एक स्थानीय ने बताया कि झेलम तो श्रीनगर से यहां तक आ जाती है, लेकिन वहां से चली विकास की नदी तो इन पहाड़ों से पहले ही सूख जाती है। बारामूला जिले के इस पर्वतीय इलाके में उड़ी, बुनियार तहसीलें है। इसी तरह इसके उत्तर में कुपवाड़ा जिला है। इसमें यदि पुंछ और राजौरी के कुछ इलाकों को भी मिला दिया जाए तो घाटी केपश्चिमी पर्वतीय जिलों की एक श्रृंखला बन जाती है। कुपवाड़ा, बारामूला (आंशिक), पुंछ, राजौरी (आंशिक) इन चार पर्वतीय सीमान्त जिलों में विकास की समस्याओं के अलावा संस्कृति, भाषा में भी काफी आपसी समानतायें हैं। इन जिलों के पहाड़ी इलाकों की कुछ आबादी भी करीब 20 लाख के निकट पहुंचती है, जिनमें आधे से अधिक गूजर व बकरवाल है। इनकी पहचान घाटी से अलग है। भाषा पहाड़ी गोजरी पंजाबी है। पशु भेड़ बकरी पालन परम्परागत व्यवसाय है। यदि यह क्षेत्र केन्द्रशासित प्रदेश का स्वरूप ले सके, तो विकास की गति तीव्र हो जाएगी। लद्दाख को केन्द्रशासित बनाने का प्रस्ताव लम्बित है, उसके साथ ही पश्चिमी कश्मीर पर भी विचार करना चाहिए। यहां गरीबी अधिक है, रोजगार के अवसर कम हैं। सड़कों, सम्पर्क मार्गो, बिजली, पेयजल की समस्यायें हैं। अतः राज्य व केन्द्र के स्तर से विशेष प्रोत्साहन की आवश्यकता है। गूजर, बकरवाल पशुपालक समाज के लिए घाटी में कोई विशेष सहानुभूति नही उमडती है। घाटी के लोग भारत-पाकिस्तान, आजादी का खेल खेलने में मशगूल रहे हैं, जबकि पहाड़ी क्षेत्र इस खेल से बाहर है। यहां पाकिस्तानीपरस्ती नही है। सांस्कृतिक व भाषाई दृष्टि से ये उस इलाके के ज्यादा करीब हैं, जो हमारे तत्कालीन नेताओं की दुरभिसंधियों के कारण आज पाकिस्तान के कब्जे में चला गया है। 
1947 में भागते कबाइलियों का पीछा करती भारतीय सेना का जब आकरण उड़ी में ही रूकने का निर्देश दिया गया तो फील्ड के सैन्य अधिकारियों के लिए यह समझना बड़ा दुश्कर हुआ कि उन्हें मुजफ्फराबाद तक सामने दिख रही विजय से क्यों महरूम किया जा रहा है। मुजफ्फराबाद तक पहुंचना सिर्फ तीन दिनों का खेल था। फिर पाकिस्तान कश्मीर राग हमेशा के लिए भूल जाता। सेनाओं को पश्चिम में मुजफ्फराबाद की दिशा में जाने से तो रोक ही दिया गया, साथ ही दक्षिण में हाजीपीर पास से होते हुए पुंछ तक भी बढ़ने नही दिया गया। आज समझ में आता है कि तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व की शायद यह सोची समझी योजना थी कि कश्मीर का एक भाग पाकिस्तान के कब्जे में दे दिया जाए। कश्मीर स्वयं नेहरू जी देख रहे थे, सरदार पटेल का दखल नही था। इस प्रकार कश्मीर के मुख्य पहाड़ी इलाके बाहर रह जाने से ही कश्मीर की राजनीति में घाटी के लोगों और शेख अब्दुल्ला का वर्चस्व सम्भव हो सका। शेख को कश्मीर का वह इलाका नही चाहिए था, जो उनको चुनौती दे सकता। इसी के तहत हाजीपीर से गुजरती उड़ी पुंछ सड़क भी नही कब्जे में ली गयी। भारतीय सेनायें हाथ पर हाथ रखे बैठी रही और उस पास से आते शरणार्थियों से भीषण अत्याचार की कहानियां सुनती रही। पाकिस्तान सेना के आने से पहले मुजफ्फराबाद, मीरपुर आदि को आसानी से कब्जे में लिया जा सकता था। मुझे आश्चर्य हुआ कि सीमांत कश्मीर का आम आदमी भी इस गेम को समझता है। कश्मीर मूलतः चार परिक्षेत्रों में विभाजित है-जम्मू, लद्दाख, कश्मीर घाटी और सीमांत पश्चिमी कश्मीर। सीमांत कश्मीर को घाटी का पिछलग्गू मान लिया गया है। इस वजह से कश्मीर घाटी शेष समस्त परिक्षेत्रों पर भारी पड़ती है। इन क्षेत्रों में संतुलन कायम करना भी आवश्यक है। 
झीलों, शिकारों, बागों, जिंदाबाद-मुर्दाबाद के माहौल से दूर चीड़-देवदारों, गूजर बकरवालों का एक और कश्मीर भी है, जो अब तक हमारी निगाहों में ओझल रहा है। कश्मीर घाटी के इन चार जिलों को उनकी प्रकृति, संस्कृति, घाटी से भिन्नता व विकास की विशेष समस्याओं के दृष्टिगत अगर केन्द्रशासित प्रदेश  नही तो हिल कौंसिल का स्वरूप दिया ही जा सकता है, जिसमें विकास सम्बन्धी निर्णय ले सकने में यहां के जनप्रतिनिधि स्वयं समर्थ हो सके। घाटी से जो बचता है, वही यहां तक पहुंचता है। घाटी से अलग इनकी पहचान अभी तक स्वीकार नही की गयी। यहां स्वाभाविक नेतृत्व भी नही विकसित होने दिया गया। मेहनतकश गूजरों, बकरवालों व पहाड़ियों का यह इलाका भारत विरोधी प्रकृति से दूर है, बल्कि घाटी और पाकिस्तान के बीच में एक इंसुलेटर का काम करता है। इसके विकास के लिये विशेष प्रबन्ध किए जाने की आवश्यकता है। पाकिस्तान सीमा पर स्थित इस इलाके को केन्द्रशासित प्रदेश बनाये जाने से एक तो यहां विकास का माहौल बनेगा और कश्मीर घाटी की राष्ट्रविरोधी राजनीति नेपथ्य में जानी प्रारम्भ होगी। घाटी के पाकिस्तानपरस्तों को समझ में आ जाएगा कि कश्मीर का भविष्य तय करना उनका काम नही रहा। एक सीमान्त भी है उनके और पाकिस्तान के बीच में, जिसकी आवाज असर करने लगी है।

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(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य हैं)

Tuesday, August 4, 2015

इतिहास का सबक

( दैनिक जागरण के आज के अंक में प्रकाशित )
कहीं हम सन् 1962 की गलती दोहराने तो नहीं जा रहे। उस दौर में भारत-चीन का सैन्य संतुलन भारत के पूर्णत: विपरीत था और नेहरू बिना शक्ति के शक्ति की भाषा बोल रहे थे। अंतरराष्ट्रीय विश्व में भारत का सम्मान बहुत बढ़ा हुआ था। सन् 1950 में तिब्बत पर चीनी आक्रमण हुआ। अक्साई चिन से गुजरने वाले सिंकियांग-तिब्बत मार्ग, जो इस हमले में इस्तेमाल हुआ, पर कब्जा बरकरार रखने के लिए ही संपूर्ण सीमा विवाद गढ़ा गया है। खंफा विद्रोह के बाद दलाई लामा ने भारत में शरण ली। प्रतिक्रिया में चीन ने सीमा विवाद खड़ा किया, फिर युद्ध। इस पराजय ने अंतरराष्ट्रीय जगत में हमारा सम्मान धूल धूसरित करते हुए हमें दोयम श्रेणी का देश बना दिया। यही चीन का उद्देश्य भी था। हमें सैन्य तैयारियों में लापरवाही की बड़ी सजा मिली।
बहरहाल हमने लखवी और आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान के साथ चीन को भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर घेरने की कोशिश की है। नेहरू तक ने अपने जबरदस्त अंतरराष्ट्रीय सम्मान के बावजूद ऐसी हिम्मत नहीं की थी। प्रधानमंत्री की दो टूक बातें चीन को नागवार लग रही हैं। भारत की भूमिका व सम्मान अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में एक बार फिर बढ़ना प्रारंभ हुआ है। तिब्बत मुद्दे पर विश्व की सहानुभूति दलाई लामा के साथ है। भारत के चीन के समानांतर एक आर्थिक शक्ति बनने की संभावनाएं सामने हैं। प्रधानमंत्री के खुले प्रस्ताव के बाद भी चीन उत्तरी सीमा की निशानदेही पर सहमत नहीं है। जाहिर है कि सैन्य दखल की संभावनाएं बरकरार हैं। सीमा विवाद वहीं पर है जहां 1962 में था। नेहरू ने देश को गरिमा दी, वैचारिक आधार दिया, लेकिन भारत को आर्थिक शक्ति बनाने की दिशा में वे नहीं चले। वह अत्यंत महत्वपूर्ण समय था, जो वैचारिक प्रयोगों, यूनियनबाजी, हड़तालों की भेंट चढ़ गया। उन्होंने आजादी के उत्साह व ऊर्जा को नष्ट हो जाने दिया। नेहरू, गांधी के अहिंसक आंदोलनों से निकल कर आए थे। दुर्भाग्यवश उनमें सैन्य सुरक्षा संबंधी समझ नहीं थी। उनके समय में सेनाओं के अस्तित्व पर ही सवाल उठने लगे। यह कल्पनाओं से भी परे था कि कोई देश अपनी सुरक्षा के प्रति इतना लापरवाह हो सकता है। हमारी संपूर्ण सैन्य रणनीतिक कमजोरियों के बावजूद चीन ने हमला करने के पहले दस बार सोचा होगा। सोवियत राष्ट्रपति ब्रेजनेव इस मुद्दे पर चीन के साथ नहीं थे। लद्दाख में गलवान पोस्ट पर चीनी हमले का दोष जब चाऊ-एन-लाई ने भारत पर मढ़ना चाहा तो ब्रेजनेव ने पूछा भी कि अगर हमला हिंदुओं ने किया था तो कोई चीनी क्यों नहीं मरा, क्यों हिन्दू  ही मरे। क्यूबा मिसाइल संकट का लाभ उठाते हुए चीन ने भारत पर हमला बोल दिया। अफसोस कि गुटनिरपेक्ष देश भारत के साथ खड़े नहीं हुए। हमारी कमजोरी जगजाहिर हो गई थी। युद्ध के दौरान केनेडी को लिखे नेहरू के पत्र उनकी बेचारगी व व्यथा का बयान करते हैं।
तब से ह्वांग-हो में बहुत पानी बह गया है। चीन आज विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सशक्त आर्थिक, सामरिक शक्ति बन चुका है। दक्षिणी चीन सागर को वह अपनी झील मानता है। वह हिन्द महासागर में वर्चस्व की ओर बढ़ रहा है। भारत चीन के लिए एक बाजार व जूनियर आर्थिक भागीदार के रूप में स्वीकार हो सकता है, किंतु सबल-सशक्त भारत एशिया में चीनी वर्चस्व की राह में बड़ी बाधा है। अब चीन के सामने विकल्प क्या है? पहला, चीन-पाक आर्थिक कॉरिडोर, जो चीन-पाकिस्तान की संयुक्त रणनीति का हिस्सा है। उत्तरी सीमाओं पर चीनी तैयारियां हमसे बहुत आगे हैं, उनके सैन्य वाहन सीमाओं तक आ रहे हैं। हमारा अभी रोड नेटवर्क ही पूरा नहीं है। हमने महत्वाकांक्षी ‘मांउटेन स्ट्राइक कोर’ का आकार आधा कर दिया है। तोपों की कमी है। अर्थात् उत्तरी सीमाओं पर सैन्य असंतुलन की स्थिति बनी हुई है। सिर्फ वार्ताओं के लिए वार्ताएं चल रही हैं। हां, कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के साथ चीनी साङोदारी का स्वरूप स्पष्ट होने लगा है। चीन को रोक सकने वाला भारत-जापान-आस्टेलिया-वियतनाम का कोई गै्रंड अलायंस भी नहीं बनता दिखाई देता।
दूसरा, भारत को हिंद महासागर में घेरे रखने की ‘स्टिंग आफ पर्ल’ अर्थात् मोतियों की माला की चीनी रणनीति बदस्तूर चल रही है। तीसरी बात, चीनी रणनीति भारत की आंतरिक राजनीति को प्रभावित कर उसे पुन: गठबंधन सरकार के दौर में ले आने की हो सकती है। अर्थात् अस्थिरता की वापसी, माओवादियों, पूवरेत्तर अलगाववादियों को सक्रिय समर्थन। हमारी राजनीति अभी परिपक्वता के उस मुकाम पर नहीं पहुंची है, जहां विदेशी षड्यंत्रों को समझते हुए राष्ट्रीय हित के बिंदुओं पर सभी दल एकमत हो सकें। बर्मा (म्यांमार) से चीन ने मकमहोन लाइन के आधार पर सीमा विवाद का समाधान किया है। रूस से भी सीमा विवाद का बरसों पहले समाधान हो गया है। सीमा विवाद को चीन ने कहीं और मुद्दा नहीं बनाया, लेकिन भारत के साथ वह इस विवाद को जिंदा रखना चाहता है। चीन के 1962 के हमले के मूल में दरअसल सीमा विवाद नहीं था, बल्कि अक्साई चिन पर अपने कब्जे को स्वीकार्य बनाना, गुटनिरपेक्ष देशों के नेतृत्व से नेहरू को बेदखल करना व अपने लिए वैश्विक भूमिका की तलाश ही चीनी आक्रमण का उद्देश्य था। नेहरू का अंतरराष्ट्रीय प्रभाव चीनी हमले का मुख्य कारण बना। तो क्या युद्ध होगा? चीन ने सीमा विवाद जिंदा रखा है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीन की मौजूदगी है। पाकिस्तान से चीनी सैन्य सहयोग का एकमात्र लक्ष्य भारत है। भारत-अमेरिका एक स्ट्रेटजिक साङोदारी की दिशा में बढ़ रहे हैं। भारत की पूर्वी एशिया राजनय नीति सफल हो रही है। चीनी रणनीतिकार बड़े संकट में होंगे कि किस प्रकार भारत को 1962 की तरह पुन: अक्षम बनाकर असहजता की स्थिति में ले आएं। शक्ति संतुलन आज भी भारत के पक्ष में नहीं है।
युद्ध की आशंकाओं के बादल 1962 की तरह आज भी आकाश में हैं। चीन ने उन्हें बरकरार रखा है। वे ऐसे मौके की तलाश में रहेंगे कि वक्त रहते दखल दिया जा सके। शक्ति के समीकरणों का असंतुलित होना युद्ध की संभावनाएं बनाता है। युद्ध दरअसल संतुलन की खोज है। भारत आज शक्ति की भाषा बोल रहा है, लेकिन शक्ति की भाषा के पीछे तोपों की ताकत जरूरी होती है। यही गलती नेहरू से हुई थी। आशंकाओं के बावजूद हो सकता है कि लंबे अर्से तक युद्ध न हो, लेकिन ये बादल छंटने वाले नहीं है। कूटनीति की चमक में हमें धोखा खाने की जरूरत नहीं है। राजनय अपना काम करता है और रणनीति अपनी। इतिहास भी सबक देता है। एक आर्थिक गुलाम भारत सबके लिए मुफीद है, यहां तक कि क्षेत्रीय, सांप्रदायिक, अलगाववादी, जातीय शक्तियों के लिए भी। हमारा लोकतंत्र हमें एकता की राह पर बहुत दूर तक नहीं ले गया है। अगर हम शक्तिशाली नहीं बने तो हम स्वयं में युद्ध के बड़े आमंत्रण हैं।

Tuesday, March 10, 2015

ओह रेजांग ला !



रेजांग ला ! आज के 53 साल पहले 13 कुमांऊ पलटन के जवानों ने लद्दाख की उन बियाबान ऊँचाइयों पर शहादत का बेमिसाल इतिहास लिखा। चीन से हमारी शर्मनाक हार की कहानी में ‘रेजांग ला‘ चुनौती और गर्व की मीनार जैसा है।
लेह से आगे चुशूल सेक्टर में पानगांग झील के दक्षिण, ग्लेशियरों से घिरे सुनसान इलाके ‘रेजांग ला‘ में कुमाऊ बटालियन की चार्ली कम्पनी लगाई गई थी। ऊँचाई सतरह हजार फीट। जवानों के पास द्वितीय विश्व युद्ध की .303 बोर राइफलें थी। यादव सिपाहियों की इस कम्पनी ने पहली बार बर्फीली पहाडि़याँ देखी थी। कम्पनी कमांडर मेजर शैतान सिंह ने अपनी प्लाटूनों के मोर्चे नियत किये। मशीनगनों की दिशा और मोर्टार की फायरिंग के इलाके निश्चित किये गये। शैतान सिंह ने अंदाजा लगाया कि चीनी ‘सरप्राइज‘ का फायदा लेने के लिये अचानक बिना आवाज हमला बोल सकते हैं। कम्पनी इसके लिये तैयार थी। वे अपने सीमित कारतूसों को बरबाद नहीं कर सकते थे। 18 नवंबर 1962 की तारीख को अल सुबह दो बजे अचानक चीनी सेना का हमला प्रारंभ हुआ। रात काफी बर्फ पड़ी थी। भयानक ठण्ड, तापमान-30 डिग्री सेलशियस के लगभग रहा होगा। मोर्चों में पोजीशन लिये मेजर शैतान सिंह की कम्पनी ने चीनी सैनिकों के राइफलों के रंेज में आ जाने तक धैर्य से इंतजार किया और रेंज  में आते ही राइफलों, मशीनगनों मोर्टार से जबरदस्त हमला बोला गया। चीनियों को इस कार्यवाही का अंदाजा नहीं था। उनके पाँव उखड़ गये। थोड़ी देर में सामने के ढलान चीनी सैनिको की लाशों और उनके घायलों से पट गये। दूसरा हमला हुआ फिर तीसरा। परिणाम वही रहा।

18 नवंबर तक चीनी पूर्वी क्षेत्र, नेफा में मैकमोहन लाइन पर मोर्चा फतह कर चुके थे। यहाँ रेजांग ला में चीनी सेनाओ को उम्मीद नहीं थी कि उन पर इतनी बुरी बीतेगी। वे दस गुने से अधिक संख्या में हमला कर रहे थे। चौथे  हमले से पहले उन्होंने कम्पनी की प्लाटूनों पर मोर्टार, आर0सी0एल0, राकेट और तोपखानों से बुरी तरह बम्बार्डमेण्ट शुरू किया। मोर्चे तबाह होते गये। बंकरो पर बंकरे टूटती गई। जवान पीछे नही हटे। मोर्चों में और मोर्चों से बाहर शहादतें होने लगी। मोर्टार लोकेशन बरबाद हो गई। कम्पनी घिर चुकी थी। अगली प्लाटूनों के बचे खुचे घायल सैनिकों को साथ लेकर फिर संघर्ष चला। पहली प्लाटून के एकमात्र जीवित सिपाही सहीराम की एल.एम.जी ने अकेले दम पर चीनियों का पाॅंचवा हमला रोक रखा था। उसे मारने के लिए चीनियों ने राकेटों से वार किया। गोलियों की बरसात और बमों के धमाकों के बीच में दौड़ते और सैनिको का हौसला बढ़ाते मेजर शैतान सिंह बुरी तरह घायल हो चुके थे। चार्ली कम्पनी में सबको पता था कि यह उन सबकी शहादत का मोर्चा है। न उन्हें पीछे हटना था, न सरेण्डर करना था। मेजर शैतान सिंह की मौत दूर नहीं थी। कुछ घायलों को उन्होंने जबरदस्ती वापस भेजा कि कोई तो शहादतों की कहानियाँ बताने के लिये जिंदा रहे। मशीनगनें और गनर शांत हो चुके थे। गोलियाँ भी खत्म हो चुकी थीं फिर भी करीब आते चीनियों को ललकाते हुये नायक चंदगी राम यादव और बचे हुये घायलों ने संगीनों से अपनी आखिरी लड़ाई लड़ी। फिर सब खत्म हो गया। कम्पनी के चारो ओर सैकड़ो की तादाद में चीनी सैनिको की लाशें थीं। वे अपनी लाशें उठा ले गये और आगे नहीं बढ़ सके। चीनियों का लद्दाख युद्ध यहीं खत्म हो गया। फिर बर्फ के लगातार तूफानों ने युद्ध क्षेत्र को अपने प्रगाढ़ आलिंगन में ले लिया। पूरे इलाके में कई मीटर बर्फ बिछ गयी। जो जीवित भी थे वे भी मोर्चों में समाधिस्थ हो गये।

मौसम की मुश्किलें कम होने पर कई महीने बाद जब बर्फ कम हुई और खोजते हुए हमारे सैनिक वहाँ पहुँचे तो देखते हैं कि सब कुछ वैसे ही है। जैसे कि युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ। वही मोर्चे, मोर्चों में सैनिक। वे राइफलों पर टिके हुये बर्फ में जम गये थे। टूटी मशीनगनों, बरबाद मोर्टार के साथ मोर्चों में वैसे ही पोजीशन लिये जवान। जमे हुये खून के साथ खुद जम गये सैनिकों की कतारें, राइफलों के ट्रिगरों पर जम गई उगलियाँ, बर्फ हो गई आँखों से दूर क्षितिज पर निगाहें लगाये जवान, जैसे अभी भी दुश्मनों का इंतजार हो। वहाँ दिल्ली में नेताओं के बयान चलते रहे। शहादतें यहाँ रेजांग ला में दफन रही। एक सैनिक, घायल साथी को पट्टी बाँधते बाँधते एक हाथ में सिरिंज लिये हुये बर्फ बन गया। कम्पनी को मोर्टार के एक हजार गोले एलाट थे, जिसमें से सिर्फ सात बचे थे। मोर्टारमैन हाथ में बम लिये लिये जम गया। कोई जिस्म नहीं जिस पर गोलियों के, बमों के निशान न हो। सारा दृश्य ऐसा था कि जैसे कि वक्त के दरमियाँ वह क्षण हमेशा के लिये स्थिर हो गया हो। मेजर शैतान सिंह का शरीर कम्पनी बंकर के पास मिला। हाथ और पेट पर मशीनगन की गोलियों के निशान थे। नायब सूबेदार सुरजा के माथे पर भाग्य की लाइनों  के ठीक ऊपर बम के स्प्लिंटर का गहरा घाव। कनपटी तक गहरा चटक लाल खून बहकर जम गया था। वे धरतीपुत्र, धरती और पूर्वजों का कर्ज अपने खून से अदा करते हुये बर्फ की सफेद चादर के नीचे भी जैसे सुकून से नहीं सोये। इस मोर्चे में कुल 114 अधिकारी और जवान शहीद हुये।

जब भी 1962 के युद्ध के असफल नेतृत्व, कमजोर कमांडरों, बिना कारतूस जूझती सेनाओं, गिरफ्तार होते सैनिको, तबाह होते मोर्चों की बातें होंगी तो रेजांग ला की खुद्दारी की चमक हमें ढांढस बँधायेगी। मेजर शैतान सिंह को परमवीर चक्र दिया गया। समस्त जवानों की अंतिम विदाई राजकीय सम्मान से की गई। जुझारूपन, साहस, जीवटता, राष्ट्रभक्ति की संयुक्त परिभाषा अगर खोजनी हो तो वह है ‘रेजांग ला‘। पता नहीं उस शहादत के इतने साल बाद भी हमारे बड़े नगरों में रेजांग ला के नाम पर कहीं कोई पार्क, कोई सड़क है या नहीं। हमारी राजधानी दिल्ली में कोई स्मृतिस्तंभ ही हो जहाँ ‘रेजांग ला‘ के शहीदों के नाम खुदे हो ? कनाट प्लेस जैसा कोई चैक ही हो जिसे ‘रेजांग ला‘ चैक का नाम दिया गया हो। नही, ऐसा कुछ नही है। किसी ने उनकी बहादुरी के गीत नहीं लिखे। किसी मूर्तिकार में बर्फ के मोर्चे में जमे उन जवानों की मूर्तियाॅ नही बनाई। नहीं मालूम कि पिछले 53 सालों में रेवाड़ी-दादरी के उन बहादुर यादवो को कभी याद किया गया या नहीं, जो अपने खून के निशान उन पहाड़ो  पर छोड़ आये हैं। यह युद्ध  ग्रीस थर्मोपाइले में 480 ई0पू0 फारसी सेना से मुकाबला करते लियानिडास के 300 स्पार्टा योद्वाओं की जीवटता से कहीं कम नहीं था लेकिन किसी फिल्मकार ने अपने यहाॅं उनकी कहानी परदे पर नहीं उतारी। हमारी एहसानफरामोशी के बावजूद वो वहीं है अभी भी उन्हीं मोर्चों में, भिंचे हुए जबड़ों और तनी हुई संगीनों के साथ,  अपने मेजर की सरपरस्ती में। वे आँखे आज भी राइफलों के निशानों पर दुश्मनों को खोजती हैं। ‘रेजांग ला‘ शहादत की  एक भूली हुई कहानी की तरह है जिसे सारे राष्ट्र को बताया जाना अभी बाकी है। 

कैप्टन आर. विक्रम सिंह 
आई .ए.एस.







Monday, March 2, 2015

कश्मीरियत का तकाजा

इसे मुफ्ती मुहम्मद सईद की स्टेट्समैनशिप कहा जाएगा जिसकी बदौलत आज यह असंभव सी सरकार खड़ी हुई है। जम्मू के बगैर ही यह बन सकती थी, लेकिन नहीं। यह सरकार खुद ही एक संदेश की तरह है। यह सच्चे अर्थो में ‘जम्मू और कश्मीर’ की सरकार है। समस्या सरकार चलाने की ही नहीं, बल्कि वह संयुक्त वैचारिक आधार तलाशने की भी है जिस पर खड़ा हुआ जा सके। यह प्रयोग हुर्रियत को हाशिये पर धकेल देगा। कश्मीर प्रवास के दौरान यह सवाल कौंधता रहा कि आखिर इस अंतर्विरोधी कश्मीरी सांस्कृतिक-सामाजिक परिदृश्य का निष्कर्ष क्या है? और कश्मीरी बुद्धिजीवियों की क्या राय बनती है? डल झील के किनारे श्रीनगर विश्वविद्यालय का खूबसूरत परिसर है। वहां ‘सेंटर फॉर सेंट्रल एशियन स्टडीज’ द्वारा लाल देद और नंद ऋषि उर्फ शेख नूरुद्दीन वली की फिलासफी पर एक सेमिनार आयोजित किया गया था। श्रीनगर से प्रस्थान के अंतिम दिन उस विभाग में जाने का अवसर मिला। कई सवाल बनते थे। कश्मीर के उस इतिहास का क्या होगा जो कल्हण की राजतरंगिणी की धारा के साथ प्रवाहमान है? एक सूफी इस्लाम है जो कश्मीरी संस्कृति में रच बस गया है। दूसरा वहाबी, कट्टर इस्लाम है जो आतंक का सहारा लेकर घाटी में हावी होना चाहता है। हिन्दू -बौद्ध काल के कश्मीर की कोई हैसियत आज नहीं रह गई है, लेकिन बुलबुलशाह, शाह हमदान जो कश्मीर का इस्लाम से परिचय कराने वाले सूफी थे, उनकी परंपराओं का क्या होगा? कश्मीरी भाषा का भविष्य क्या है? 80 के दशक के पूर्व घाटी में हिन्दू भी थे और धर्मनिरपेक्षता की बातें थी। साझा संस्कृति की बात भली लगती थी। तब संस्कृति की दरिया के दो किनारे थे। एक था शैव मतावलंबियों का हिंदू कश्मीर दूसरा सिकंदर बुतशिकन का कश्मीर। सिकंदर वह सुलतान है जिसने बलपूर्वक कश्मीरी पंडितों को मुसलमान बनाया और न मानने वाले लाखों का कत्ल किया। इन दोनों सीमाओं के बीच साझा संस्कृतियों की राह को कश्मीरियत के नाम से नवाजा गया। यह रास्ता कश्मीर की भाषा, साहित्य, संस्कृति का नकार नहीं करता और इस्लाम की सूफी रिवायत को स्वीकार करता है। यह शेख अब्दुल्ला थे, जिन्होंने सबसे पहले कश्मीरियत की बात की। यह कश्मीर की उस सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है जिसके बगैर कश्मीर, कश्मीर नहीं है। शैव और सूफी परंपराएं कश्मीरियत की इसी झील में आकर समाहित होती हैं। उस सेमिनार में से जो बात निकलकर सामने आई वह यही है कि लाल देद और शेख नूरुद्दीन इसी कश्मीरियत की साझा संस्कृति के पथप्रदर्शक हैं। विपरीत ध्रुवों से बनी इस सरकार को वैसे ही बचाना पड़ेगा जैसे कोई तूफान में चरागों की लौ को बचाता है। आज वे सूत्र कमजोर हैं जो कश्मीर को भारत से जोड़ते हैं। चौदहवीं सदी से पहले कश्मीर हिंदू धर्म का प्रमुख केंद्र था। वह सांस्कृतिक इतिहास जैसे आज महत्वहीन हो चुका है। मजहबी कट्टरवादियों के बढ़ते दबाव में शायद आज इसे याद करने की भी इजाजत नहीं है। दिल्ली में अब तक जो नेतृत्व रहा है उसका हिंदुस्तानपरस्ती से कोई खास सरोकार नहीं रहा। ऐसे में कश्मीर का राह से भटक जाना बड़ा स्वाभाविक था। एकता के बिंदुओं की निशानदेही नहीं की गई। आम कश्मीरी न तो दहशतगर्द है, न ही हिन्दू विरोधी। वह तो एक सीधी-सरल सोच का आदमी है, जिसे हालात ने मजबूर बना दिया। बातचीत में कई लोगों ने कहा भी कि आप समझ नहीं पा रहे कि हम लोग अपने नाम के साथ इस्लाम से पहले के दिनों की अपनी जातीय पहचान जैसे, भट्ट, वानी, रैना, पंडित, टाक, लोन, गुरू क्यों लिखते हैं? जाहिर है, हम अपनी विरासत भूलना नहीं चाहते। हमारे कल्चर में बहुत कुछ न भूलने लायक है। कश्मीर घाटी में लाल देद या मां लालेश्वरी एवं उनके मानस पुत्र शेख नूरुद्दीन वली या नंद ऋषि की परंपरा मजहब और संस्कृति के आपसी संवाद का प्रतीक है। उनकी मजार चरारेशरीफ का आतंकियों द्वारा जलाया जाना दरअसल कश्मीरियत पर हमला था। अपनी प्रार्थनाओं में वे शिव से वरदान मांगते दिखते हैं। भेड़ चराता वह चरवाहा/क्षणमात्र में बुला लिया गया/अचानक/और हरमुख से सीधे उड़ गया स्वर्ग को/हे शिव! मुङो भी वही वरदान दो। लाल देद ने कहा-शिव हैं व्याप्त सर्वत्र/मृत्यु के जाल के साथ/यह जाल तीर्थयात्र भी है/यदि नहीं मुक्त हुए/ जीवित रहते/तो कैसे मुक्त होंगे मृत्यु के बाद/ध्यान की गहनता में/स्वयं में पहचानो अपने स्वत्व को। अब कश्मीर की हिंदूविहीन घाटी में लाल देद और शेख नूरुद्दीन रचित शिव की स्तुतियों का भला अर्थ क्या रह जाता है? ऐसी स्थिति में लाल देद और शेख नूरुद्दीन की साझा संस्कृति हाशिये पर न चली जाएगी? आज जिहादी सोच कश्मीर को उसकी रिवायत, संस्कृति, भाषा से पूरी तरह से काट कर एक उन्मादी मजहबी राज्य बनाने पर आमादा है। कश्मीर शेष भारत से अलगाव महसूस करता है। हमारे नेताओं ने कश्मीर को लेन-देन का सामान बना दिया है। कश्मीर कोई जीता हुआ इलाका नहीं, बल्कि हमारे वजूद का हिस्सा है। जाहिर है, हमारे नेताओं से गलतियां हुई हैं। कश्मीरियत की इसी साझी विरासत के लिए ही सही, घाटी में पंडितों की वापसी बेहद जरूरी है। चर्चाओं में कश्मीर के बुद्धिजीवी वर्ग ने चिंता व्यक्त करते हुए स्वीकार भी किया कि आजकल सलाफी वहाबी तबकों की गतिविधियां उभार पर हैं, जबकि कश्मीर को इस्लामी रंग सूफियों का दिया हुआ है। अब जब वहाबियों के द्वारा यह सूफी परंपरा ही गैर इस्लामी करार दी जा रही है तो उस मुस्लिम समाज की क्या हैसियत बनेगी जिसे सूफियों ने इस्लाम में दीक्षित किया है? कल इन्हें भी अहमदियों की श्रेणी में खड़ा कर दिया जाएगा। कश्मीर को सूफी संतों से अलग देखा भी नहीं जा सकता। कश्मीरियत के बहुत से रंग कश्मीरी भाषा के सबसे लोकप्रिय कवि गुलाम अहमद माहजूर की शायरी में भी पेज दर पेज बिखरे हुए हैं। मैं नहीं हूं आज/जैसा था पहले कभी/हमारी महान सभ्यता के/जाग्रत अवशेष दिखंेगे बिखरे हुए/ पवित्र शिलाओं में। पहाड़ों से आते झरनों की तरह झरती माहजूर की शायरी कश्मीर की झीलों, चिनारों, विरासतों और मुहब्बतों की बातें करती है। कश्मीरी भाषा ही कश्मीरियत, कश्मीरी संस्कृति की सच्ची वाहक है। अब इसे पीरपंजाल के पर्वतों से नीचे उतरते हुए डोगरी को भी स्पर्श करने की जरूरत है। कश्मीरियत तो कश्मीर को शेष भारत से जोड़ने का सबसे मजबूत पुल है। संपूर्ण कश्मीर घाटी कश्यप ऋषि के वंशज कश्मीरी पंडितों की थी। किसे पता था कि ऐसा वक्त भी आएगा जब कश्यप ऋषि के वंशजों को अपना धर्म बदलने को मजबूर होना पड़ेगा। इन वंशजों को अपना इतिहास भूल जाने को बाध्य कर दिया गया। जो कश्मीरी पंडित सदियों के नरसंहार और बलपूर्वक धर्म परिवर्तन से किसी तरह जीवित बचे हैं वे आज अपने घरों से बेदखल हैं। उनकी वापसी हो। वीरान, खंडहर हो चुके मंदिरों को उनकी पूर्व स्थितियों में लाया जाए। आज जो मस्जिदे हैं वे भी ऋषि कश्यप के वंशजों की ही हैं। कश्मीर की सुबहों में मस्जिदों से उठती अजान के साथ पहले की तरह भक्तों के जयकारे और घंटों का निनाद शामिल हो, यही कामना है। इंशाअल्लाह! यही कश्मीरियत का तकाजा भी है। 


(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा में हैं)

Thursday, February 26, 2015

बदलाव की ओर कश्मीर



( 15 फरवरी 15 को दैनिक जागरण में प्रकाशित )
बादलों के नीचे पहाड़ो पर बर्फ थी। हमारा जहाज पीरपंजाल की ऊंची पहाडि़यों के ऊपर उड़ रहा था। बहुत पहले इन्हीं हवाई रास्तों पर 1947 में 27 अक्टूबर को डकोटा जहाजों से सिख जवानों की प्लाटूनें जा रही थी। वे इमरजेन्सी के हालात थे। कबाइली हमलावर बारामूला पहुॅंच चुके थे। श्रीनगर सिर्फ 50 किलोमीटर दूर था। जो पहला डकोटा उड़ा उसमें सिख पलटन के कमाण्डिंग आॅफिसर कर्नल रंजीत राय थे जो दूसरे दिन बारामूला में कबायलियों से लड़ते हुये आजाद भारत के पहले शहीद बनने वाले थे। ठीक उसी वक्त बारामूला में मकबूल शीरवानी, नेशनल काॅन्फ्रेस का एक कार्यकर्ता कबाइली सरदारों में यह खबर फैला रहा था कि भारतीय सेनायें श्रीनगर पहुॅच चकी है। कबाइलियों को मजबूरन खेतो का रास्ता लेना पड़ा। बात खुलने पर मकबूल को कील ठोक कर लटका दिया गया, बीसो गोलियाॅ मारी गई। लेकिन उसने सेना को उतरने का वक्त दिला दिया था। डी0एस0पी0 बारामूला ने बताया कि आतंकियों के भय से उसकी मजार पर कोई नहीं जाता। 

अगर सेनायें वक्त पर न पहुॅंचती तो एयरपोर्ट कबाइली पाकिस्तानी कब्जे में चला गया होता। यही कश्मीर घाटी आज पाकिस्तान के पंजाबियों, कबायलियों की कालोनी होती। तब वहाॅं पर महाराजा हरीसिंह का वह नागरिक कानून लागू न होता जिसके कारण कोई कश्मीर में न बस सकता है, न सम्पत्ति खरीद सकता है। इसी कानून ने 1947 में पाकिस्तान से कश्मीर आये शरणार्थियों को आज तक वोट के अधिकार से वंचित कर रखा है। यासीन मलिक जैसे अलगाववादी इन्हें वोट का अधिकार देने के खिलाफ है। 

घाटी लगभग पंडितविहीन हो चुकी है जो बचे हैं, वे अक्सर अपने दो नाम रखते है। अगर आपका नाम मनोहर है तो आप जरूरत के मुताबिक मुनव्वर हो जाते है। बड़गाम से श्रीनगर के रास्ते पर निराश्रित, निवार्सित पंडितों के लिये एक सरकारी कालोनी बनाई गई है। करीब 200 परिवारों ने वहाॅ आश्रय ले रखा है। वे अभिशप्त, शापित लोग छोटे कारोबार, नौकरियाॅ वगैरह कर भय के उस माहौल में अपनी जिंदगी चला रहे है। ठंड और मनहूसियत के बीच दो एक परिवारों से मुलाकात हुई। सवाल बनते थे कि जब बढ़ती कट्टरता आतंकवाद का अंदाजा आप लोगो को हो रहा था तो फिर एक साथ खड़े होने की कोई कोशिश क्यों नही हुई ? पंडितों ने फिलीस्तिीनियों की तरह हथियार उठाना क्यों नहीं सीखा ? क्यों सिखों के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाने की कोशिश नहीं हुई ? क्यों वे जेहादियों के आसान लक्ष्य बनते रहे ? कश्मीर के बड़गाम जिले में यह देखना आश्यर्चजनक था कि यहाॅ सिखों का भी एक ग्राम है। धर्मसाल सिंहान में सिखों के सत्तर घर है एक नया बना गुरूद्वारा भी है। वहाॅ एक बुजुर्ग कुलदीप सिंह मिले। छूटते ही बताने लगे कि जहाॅगीर के साथ गुरू हरगोविंद जी आये थे तब यह गाॅव बसा था। श्रीनगर बारामूला में सिखों की आबादी है। शिया भी घाटी में 20 प्रतिशत के लगभग है उनमें आतंकवादी सोच नही के बराबर है। वे अक्सर पंडितों के लिये खड़े भी हुये फिर इन सूत्रों को जोड़ा क्यों नही जा सका ? 

19 जनवरी 1990 का वह दिन कश्मीरी पंडितो को कभी नही भूलेगा जब अचानक मस्जिदों से निकलकर निजामे मुस्तफा के नारे लगने लगे। सडकों पर जलते टायर थे आगजनी थी और थी अल्लाहोअकबर की ललकार। लाउडस्पीकरों से कश्मीर छोड़ने वरना अंजाम भुगतने की चेतावनी दी जा रही थी। डरे हुये पंडितो को लगा कि उनकी जिंदगी का आखिरी दिन आन पहुॅचा है। वह आतंक उनके दिलों से आज तक नहीं निकला। उस दिन जैसे अंधे, मजहबी, जेहादी जुनून ने घाटी को अपनी गिरफ्त में ले लिया हो। लोग मारे जाने लगे। एक कश्मीरी पंडित लड़की को आरा मशीन पर जिंदा चीर दिया गया था। कोई अलगाववादियों के खिलाफ नहीं गया। यह कैसा मनोविज्ञान है ? ये जो पंडितों को धर्मपरिवर्तित करने का फतवा जारी कर रहे हैं उनके हिंदू पूर्वजों का भी कभी भयानक तरीके से धर्मपरिवर्तन कराया गया था। 

बहरहाल, वक्त के साथ हालात बदल रहे हैं। जिस दिन शेरे कश्मीर स्टेडियम में प्रधानमंत्री की चुनावी सभा थी पूरे श्रीनगर में बंदी का नजारा था। बाजार, आफिस सब बंद। उस दिन सर्किट हाउस जो स्टेडियम के ऐन पीछे है वहाॅ तक हम चुनाव डयूटी में लगे लोगों की गाडियाॅ भी नही आ र्पाइं। पैदल रास्ते पर सन्नाटा पसरा था। जब गाडियाॅ मिली तो हमने पूरे श्रीनगर शहर का चक्कर लगाया। बंदी का परफेक्ट माहौल था। फिर भी हर रास्ते से छोटे समूहों में लोग स्टेडियम की ओर जाते जरूर दिखे। 25 सालों के दौरान इतना खून बहाने पर भी अलगाववादी आतंकियों को वह जमीन नही मिली जो उनका लक्ष्य थी। आज इतने बरसों में इस चुनाव तक यह सोच अब घाटी में कमजोर हो चली है। लगातार बायकाट से ऊब कर जनता बडे़ पैमाने पर वोट के लिये बाहर आई। वोट प्रतिशत में यह बढोत्तरी दरअसल आम जनता द्वारा सत्ता की लगाम पकड़ने की कोशिश है। एक सैन्य अधिकारी ने बताया भी कि 2008 के पिछले चुनावों में गाॅवों से काॅल आती थी कि मेहरबानी होगी जनाब, फोर्स की एक गाड़ी भेज दो। गाॅव वाले चाहते थे कि फोर्स आ भर जाये जिससे कि वे आतंकियों को यह सफाई दे सके कि क्या करें, फोर्स ने जबरदस्ती वोट डलवाये। इस बार चुनाव में कई सरपंचो को मारने के बावजूद इनमें जनता को रोक पाने की ताकत नही रही। कश्मीरियों ने खुद ही वोट देने के रास्ते बनाये।

अलगाववाद सिर्फ कश्मीर घाटी में है। जम्मू, लद्दाख में ऐसा सवाल ही नहीं है। सीमांत पर्वतीय कश्मीर के गूजर बकरवाल भी अलगाववाद के गुनाहगार नहीं है ! सिर्फ घाटी में कुछ पाकिस्तानपरस्त नेता माहौल बनाये हुये है। देखा जाये तो P O K और भारतीय कश्मीर में बहुत फर्क है। P O K का बुरा हाल है। हमारे एक ड्राइवर ने बताया भी कि उस पार से आने वाले हमें कहते है कि भाई तुम लोग तो जन्नत में हो और पाकिस्तान में आना चाहते हो। तुम्हारी अक्ल पर तरस आता है। हमसे कोई पूछे तो आज ही हम हिंदुस्तान का हिस्सा हो जाये। 

शंकराचार्य पहाड़ी के वृक्षों से आच्छादित रास्ते पर पैदल चलते हुये नीचे डलझील और श्रीनगर का खूबसूरत विस्तार दिखता है। यह जो श्रीनगर है भारत का सबसे अमीर शहर हो सकता है। पर्यटक होटल ही नहीं, तंबुओं में भी रूकने को तैयार हो जायेगे। कैम्पिंग के लिए कश्मीर के विस्तीर्ण सौन्दर्य स्थलों में इफरात मैदान हैं। यहाॅ रेलवे पहुॅचने ही वाली है। फिर सारा भारत कश्मीर का रूख करेगा। पर्यटन, हैण्डीक्राफ्ट, ड्राईफ्रूट, केसर का बाजार ही कश्मीर को बदल कर रख देगा। यह जो बेवजह का पाकिस्तानी कार्ड है इसे फेंक देना होगा, कश्मीर की बेहतरी के लिये। मन्दिर के रास्ते के एक व्यू प्वाइंट पर पिकनिक कर रहे कश्मीरियों ने बताया कि ऊपर हिन्दुओं का मन्दिर है। आज उन्हें भूला हुआ इतिहास जानने की जरूरत है कि यह शंकराचार्य मंदिर दरअसल उनके पूर्वजों का है।  


कैप्टेन आर0 विक्रम सिंह
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा में है)

Friday, January 23, 2015

कश्मीर का अलग चेहरा


( आज के दैनिक जागरण में प्रकाशित )

पश्चिमी कश्मीर की ऊॅची पहाडियों में तेज बहती झेलम के ऐन किनारे स्थित उड़ी में बहुत कुछ नही बदला है। बहुत साल पहले जब मैंने यहाॅं बतौर लेफ्टिनेन्ट अपनी आर्टिलरी यूनिट ज्वाइन की थी, तब यह गाॅंव ही हुआ करता था। आज यह एक छोटे कस्बे जैसा है। इन क्षेत्रों में कोई टूरिस्ट नहीं आता। उसे तोशामैदान, देवदार के जंगलों, नौगाॅव के लोकटबंगस की खूबसूरती नहीं मालूम। आम टूरिस्ट केरन घाटी में किशनगंगा के तट तक नही पहुॅचता। शेष भारत के लिये सिर्फ कश्मीर घाटी ही कश्मीर है। 2005 के भूकम्प ने उड़ी व आसपास के पहाड़ी ग्रामों को बहुत क्षति पहुॅचाई। यह एक गरीब पसमांदा इलाका है। उड़ी के दक्षिण में जाने वाली सड़क प्रसिद्व हाजीपीर पास को पार कर पुंछ तक चली गयी है। 1965 के युद्व में मेजर दयाल ने एक असंभव से अभियान में इस पास पर कब्जा किया था। ताशकन्द वार्ताओं में हाजीपीर को पाकिस्तान को दे देना हमारी कूटनीति की बड़ी विफलताओं में से एक है। अगर यह मार्ग होता तो उड़ी को पुंछ राजौरी, और जम्मू से जोड़ने का हमारे पास एक विकल्प उपलब्ध होता। साथ ही इन पर्वतीय जिलों को विकास की एक इकाई के रूप में गठित करना भी आसान होता। मैने अपने सैन्य जीवन की शुरूआत उड़ी की इन्ही चीड़, देवदारों की पहाडियो से की थी। इतने वर्षो बाद एसेम्बली चुनावांे में दुबारा यहाॅ आने का मौका मिला। मैं हाजीपीर के सामने की उन पहाडि़यों पर भी गया जहाॅ मैं रहा था। देवदारांे के वे ऊॅचे दरख्त, जिनसे चाॅदनी का झरना बहा करता था, भूकम्प में गिर गये। बंकरे भी नई है। हाॅ, उस पोस्ट पर अब तिरंगा भी लहराने लगा है। सेना पहले से ज्यादा सजग, सन्नद्ध, है। घुसपैठियों के कारण सैन्य गतिविधियाॅ पहले से कहीं ज्यादा है। 
आसपास के गाॅंवों को देखने से अन्दाजा लगा कि विकास की रोशनी अभी भी यहाॅं तक नहीं पहुॅंची है। एक स्थानीय ने बताया कि झेलम तो श्रीनगर से यहाॅ तक आ जाती है लेकिन वहाॅ से चली विकास की नदी तो इन पहाड़ों से पहले ही सूख जाती है। बारामूला जिले के इस पर्वतीय इलाके में उड़ी, बुनियार, तहसीलें है। इसी तरह इसके उत्तर में कुपवाड़ा जिला है। इसमें यदि पुॅछ और राजौरी के कुछ इलाकों को भी मिला दिया जाये तो घाटी के पश्चिमी पर्वतीय जिलों की एक श्रृंखला बन जाती है। कुपवाड़ा, बारामूला (आशिंक), पुॅछ, राजौरी (आंशिक) इन चार पर्वतीय सीमान्त जिलों में विकास की समस्याओं, के अलावा संस्कृति, भाषा में भी काफी आपसी समानतायें है। इन जिलों के पहाड़ी इलाकों की कुल आबादी भी करीब 20 लाख के निकट पहुॅचती है जिनमंे आधे से अधिक गूजर व बकरवाल है। इनकी पहचान घाटी से अलग है। भाषा पहाड़ी गोजरी पंजाबी है। पशु, भेड़ बकरी पालन परंपरागत व्यवसाय है। यदि यह क्षेत्र केन्द्रशासित प्रदेश का स्वरूप ले सके तो विकास की गति तीव्र हो जायेगी। लद्दाख को केन्द्रशसित बनाने का प्रस्ताव लम्बित है, उसके साथ ही पश्चिमी कश्मीर पर भी विचार करना चाहिए। यहाॅ गरीबी अधिक है, रोजगार के अवसर कम है। सड़कांे, सम्पर्क मार्गों, बिजली, पेयजल की समस्यायें है। अतः राज्य व केन्द्र के स्तर से विशेष प्रोत्साहन की आवश्यकता है। गूजर, बकरवाल पशुपालक समाज के लिये घाटी में कोई विशेष सहानुभूति नहीं उमड़ती। घाटी के लोग भारत-पाकिस्तान, आजादी का खेल खेलने में मशगूल रहे है, जबकि पहाड़ी क्षेत्र इस खेल से बाहर है। यहाॅ पाकिस्तानपरस्ती नहीं है। सांस्कृतिक व भाषाई दृष्टि से ये उस इलाके के ज्यादा करीब है जो हमारे तत्कालीन नेताओं की दुरभिसंधियों के कारण आज पाकिस्तान के कब्जे में चला गया है। 
1947 में भागते कबाइलियों का पीछा करती भारतीय सेना को जब अकारण उड़ी में ही रूकने का निर्देश दिया गया तो फील्ड के सैन्य अधिकारियों के लिये यह समझना बड़ा दुष्कर हुआ कि उन्हें मुजफ्फराबाद तक सामने दिख रही विजय से क्यों महरूम किया जा रहा है। मुजफ्फराबाद तक पहॅुचना सिर्फ तीन दिनों का खेल था। फिर पाकिस्तान कश्मीर राग हमेशा के लिये भूल जाता। सेनाओं को पश्चिम में मुजफ्फराबाद की दिशा मंे जाने से तो रोक ही दिया गया साथ ही दक्षिण में हाजीपीर पास से होते हुये पुंछ तक भी बढ़ने नहीं दिया गया। आज समझ में आता है कि तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व की शायद यह सोची समझी योजना थी कि कश्मीर का एक भाग पाकिस्तान के कब्जे में दे दिया जाये। कश्मीर स्वयं नेहरू जी देख रहे थे, सरदार पटेल का दखल नहीं था। इस प्रकार कश्मीर के मुख्य पहाड़ी इलाके बाहर रह जाने से ही कश्मीर की राजनीति में घाटी के लोगों और शेख अब्दुल्ला का वर्चस्व संभव हो सका। शेख को कश्मीर का वह इलाका नहीं चाहिए था जो उनको चुनौती दे सकता। इसी के तहत हाजीपीर से गुजरती उड़ी पुॅछ सड़क भी नही कब्जे में ली गई। भारतीय सेनायें हाथ पर हाथ रखे बैठी रही और उस पार से आते शरणार्थियों से भीषण अत्याचार की कहानियाॅ सुनती रही। पाकिस्तान सेना के आने से पहले मुजफ्फराबाद, मीरपुर आदि को आसानी से कब्जे में लिया जा सकता था। मुझे आश्चर्य हुआ कि सीमांत कश्मीर का आम आदमी भी इस गेम को समझता है। कश्मीर मूलतः चार परिक्षेत्रों में विभाजित है, जम्मू, लद्दाख, कश्मीर घाटी और सीमांत पश्चिमी कश्मीर। सीमांत कश्मीर को घाटी का पिछलग्गू मान लिया गया है। इस वजह से कश्मीर घाटी शेष समस्त परिक्षेत्रों पर भारी पड़ती है। इन क्षेत्रों में संतुलन कायम करना भी आवश्यक है। 
इन चार जिलों को उनकी प्रकृति, संस्कृति, घाटी से भिन्नता व विकास की विशेष समस्याओं के दृष्टिगत अगर केन्द्रशासित प्रदेश नहीं तो हिल कौंसिल का स्वरूप तो दिया ही जा सकता है जिसमें विकास सम्बन्धी निर्णय ले सकने में यहाॅ के जनप्रतिनिधि स्वयं समर्थ हो सके। घाटी से जो बचता है वही यहंाॅ तक पहंुॅचता है। घाटी से अलग इनकी पहचान अभी तक स्वीकार नही की गई। यहाॅ स्वाभाविक नेतृत्व भी नही विकसित होने दिया गया। मेहनतकश गूजरों, बकरवालांे व पहाडि़यांे का यह इलाका भारतविरोधी प्रकृति से दूर है बल्कि घाटी और पाकिस्तान के बीच में एक इंसुलेटर का काम करता है। इसके विकास के लिये विशेष प्रबन्ध किये जाने की आवश्यकता है। पाकिस्तान सीमा पर स्थित इस इलाके को केन्द्रशासित प्रदेश बनाये जाने से एक तो यहाॅ विकास का माहौल बनेगा और वहाॅ की राष्ट्रविरोधी राजनीति नेपथ्य में जानी प्रारंभ होगी। घाटी के बचे खुचे पाकिस्तानपरस्तों को समझ में आ जायेगा कि कश्मीर का भविष्य तय करना उनका काम नहीं रहा। एक सीमान्त भी है उनके और पाकिस्तान के बीच में, जिसकी आवाज असर करने लगी है। 
आर0 विक्रम सिंह
पूर्व सेनाधिकारी