Tuesday, May 24, 2016

साक्षरता - स्वच्छता - सहकारिता



( कैप्टेन आर0विक्रम सिंह )

समस्यायें चिन्हित करना एक बात है, समाधान के रास्ते खोजना दूसरी। हमारे गांवों में अशिक्षा है, बेरोजगारी है, बीमारियां हैं, जमीनों के विवाद, मुकदमे हैं। जात-पांत की सामाजिक समस्यायें अपनी जगह बरकरार हैं। हां शोषण का वह रंग अब नही है, जो प्रेमचन्द के उपन्यासों में मुखर होता है, बल्कि बराबरी की लागडाँट है। कथित उच्च वर्ग में श्रम से अरूचि, दलित वर्ग में शिक्षा से अरूचि भी वहीं की वहीं है। नगरों की ओर पलायन रूका नही है। बेरोजगारी है लेकिन रोजगार सम्बन्धी कोई शिक्षा नही है। समाधान ? वह भी कोई राकेट साइंस नही है। अगर ग्राम के इंटर पास लड़के को कृषि सम्बन्धी व्यावहारिक जानकारी हो जाए तो वह अपने परिवार की भूमि पर सही व वैज्ञानिक तरीके से खेती, बागवानी कर सके। अगर हमारे परिवार में 1 से 5 एकड़ भूमि है तो हमे कोई बताए कि उस पर किस प्रकार आदर्श  कृषि, पशुपालन, बागवानी आदि की जा सकती है। इसकी विधियां बताई जाए, लेकिन ऐसी न तो कोई शिक्षा है न ही ऐसी शिक्षा सोची ही गयी है। इस कारण कृषि सम्भावनाहीन कार्य मान लिया गया है। गांवो, कस्बो में कोई आई0टी0आई जैसा भी संस्थान नही, जो कृषि कार्य की शिक्षा दे सके। फिर कृषि आधारित रोजगार जैसे बीज, खाद, कृषि उपकरण, पशु आहार आदि का व्यवसाय भी तो है। हर गांव में अनाज आढ़त के कारोगार की गुंजाइशें  है। लेकिन खेती का माल बाजार के बनिए के पास ही जाएगा। उपज के सही दाम के लिए इस व्यवसाय का एकाधिकार समाप्त होना भी आवष्यक है। बैंक सहयोग दे तो ग्रामीण युवक भी आढ़त का काम करे, लेकिन ऐसा नही होता। सहकारी बैंक निष्क्रिय है। उनकी कोई भूमिका ही नही है।
गांवों में राजनीतिक, जातीय जागरूकता की बहुतायत है। अभी पंचायत चुनाव हुए हैं। हमारा प्रधान सारे गांव का प्रधान नही हो पाता। वह अपने समर्थकों का ही प्रधान बना रहता है। व्यवस्था के समर्थकवादी होने के कारण गँवई पार्टीबंदी कभी खत्म नही होती। अशिक्षा, बेरोजगारी से उसका कोई वास्ता ही नही है। लगभग हर विभाग में ग्रामस्तरीय संविदा कर्मचारी भी बहुत हो गये हैं। चूंकि स्कूली सर्टिफिकेट फर्जी मिल जाते हैं, इसलिए साक्षर होने की जरूरत ही नहीं। अंगूठाछाप महिलाएं भी आशा बहू, आंगनबाड़ी कार्यकत्री बनी हुई हैं। परिणाम यह है कि स्वास्थ्य पोषण की आवष्यक व्यवस्थायें नेपथ्य में चली जाती हैं और पंजीरी बाजार में बिकती मिलती है। अकसर हमारे विभिन्न ग्रामीण विभागीय कर्मियों में प्रशिक्षण के साथ जिम्मेदारी का भी अभाव है। जब आधारभूत योग्यता ही नही तो फिर प्रशिक्षण कैसा ? ऐसे संस्थान हैं भी नही, जो ग्रामीण सेवाओं से जुड़े कार्यो में प्रशिक्षण देते हों।
तात्पर्य यह है कि अगर ग्रामों में रोजगार की सम्भावनायें बढ़ानी है और सेवाओं का स्तर सुधारना है तो रोजगार व सेवाओं की स्थानीय आवष्यकताओं के अनुरूप प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी जरूरी है। ग्रामों के लिए कोई कृषि व्यवसाय सम्बन्धी आई0टी0आई0 जैसे संस्थान नही हैं। युवकों को व्यवसायिक मार्गदर्शन किस प्रकार दिया जाए ? विचार स्वयं में समाधान नही है। समाधान तो विचारों के कार्यरूप में परिणत कर पाने पर निर्भर है। प्रश्न यह है कि ग्रामीण रोजगार व सेवाओं के प्रति हमारी प्रशासनिक मशीनरी व पंचायती व्यवस्था की प्रतिबद्धता है या नही। अभी एक ग्राम में भ्रमण के दौरान देखा गया कि एक आंगनबाड़ी कार्यकत्री अशिक्षित हैं। लेकिन वे प्रधान की माता जी थीं। त्यागपत्र के लिए कहे जाने पर बात उठी कि विरोधी गुट की एक आंगनबाड़ी कार्यकत्री भी अंगूठा छाप है, उनसे भी इस्तीफा लिया जाए, तब वे अपना इस्तीफा देंगी। जाहिर है कि हमारे गांवों में सेवाएं गौण हैं, चौबीस घंटे की राजनीति जारी है। हर बात गुटबंदी की भेंट चढ़ जाती है।
इन सबके बीच सवाल बनता है कि लोकतांत्रिक अथवा पंचायती शक्तियों का उपयोग किस प्रकार विकास के लिए किया जाए। हमारे जनपद श्रावस्ती में तीन में से दो महिलाएं निरक्षर हैं। निरक्षरता का हमारा यह अनुपात शायद देश के आदिवासी क्षेत्रों से भी नीचे है। पुरूषों में यह दर 50 प्रतिशत है, लेकिन इतनी भीषण निरक्षरता को लेकर मैने किसी पंचायती नेता को चिंतित परेशान नही देखा। अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, सफाई, टीकाकरण जैसी सेवाओं में गुणवत्ता का अभाव किसी की चिंता का कारण नही बन सका। हां, यदि किसी अकर्मण्य आंगनबाड़ी कार्यकत्री, ए0एन0एम0 अथवा आशा बहुओं को हटाया जाएगा तो उनकी पैरोकारी में बहुत से लोग खडे़ हो जायेंगे।
अशिक्षा है तो स्वास्थ्य स्वच्छता प्रति जागरूकता का अभाव भी है। स्वच्छता हमारी प्रवृत्ति क्यों नही है ? आज इक्कीसवीं सदी में हम एक हाथ में मोबाइल लिए दूसरे में लोटा लिए खेतों में शौच जा रहे हैं। किसने मना किया घरों में शौचालय में नही होंगे ? आज ग्रामीण समाज को शौचालय के उपयोग के लिए प्रेरित करने में जितना प्रयास करना पड़ रहा है, उतने में तो देश में सांस्कृतिक क्रांति हो जाती। टीकाकरण में हमारा जिला प्रदेश में क्या, शायद देश में भी सबसे पीछे हो। इस बात से हमारे पी0एच0सी0 प्रभारी डाक्टरों को कोई शर्मिदंगी नही होती। जबसे शौचालयों का अभियान चला है तो स्वच्छता के लिए वातावरण बनना शुरू हुआ है। लेकिन इसे जनआंदोलन बनाना जरूरी है, जिससे सिर्फ अनुदानों पर ही स्वच्छता का अभियान निर्भर न हो। 
आजादी के पहले से ही विकास के सबसे महत्वपूर्ण माध्यमों में सहकारिता अथवा कोआपरेटिव इकाइयों की गणना होती रही है। देश के अन्य प्रदेशो  महाराष्ट्र, गुजरात में विकास इंजन बन चुकी सहकारिता हमारे यहां प्रारम्भ में ही दम तोड़ गयी। सहकारिता की असफलता से हमारे गांव विकास के एक महत्वपूर्ण अस्त्र से महरूम हो गये हैं। कितना आसान है सहकारिता कोआपरेटिव की बात करना, लेकिन विभाजित खण्डित मानसिकता के हमारे गांवों में अब यह मुष्किल काम हो गया है। बैंक छोटे कर्ज नही देते, जबकि धन की आवष्यकता होने पर गांव का आदमी धनाढ्य दबंग अर्थात लठैत साहूकार से दस रूपया प्रति सैकड़ा प्रतिमाह पर कर्ज लेने को मजबूर होता है। अंततः अपनी जमीन दे बैठता है। गांवो में माइक्रो फाइनेंस इकाइयाँ जरूरी हैं। श्रावस्ती जिले में बैंकों की जमा धनराशि से कर्ज का अनुपात मात्र 30 प्रतिशत है। 70 प्रतिशत पूंजी, जाहिर है कि बैंक बाहर निवेश कर रहे हैं। अगर सहकारिता की बात करे तो यह अनुपात 100 प्रतिशत पूंजी तक हो सकता है। इस सोच को ग्राम सहकारिता बैंक में बदलने की जरूरत है। यह ग्रामीण समाज को बड़ी वित्तीय राहत दे सकता है, लेकिन सहकारिता का माहौल बनाकर यहां तक पहुंचने का रास्ता बहुत लम्बा है। जाने-माने अर्थशास्त्री डा0 युनूस सलीम ने ग्रामीण सहकारिता और माइक्रो लोन के जरिये बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था का चेहरा बदल दिया है। हमें अशिक्षा के विरूद्ध स्वास्थ्य-स्वच्छता व सहकारिता के लिए आंदोलन की आवश्यकता है। निरक्षरता को लेकर महिलाओं ने अपनी पीड़ाएं व्यक्त की है। हमारे बाप ने हमें सिर्फ बरतन मांजने, कपड़े धोने के लिए पैदा किया था। अब साक्षर होकर क्या करेंगे ?
हमारी समस्याओं के समाधान अल्पकालीन नही हैं। यह गांवों के माहौल को आमूलचूल बदलने वाली बात है। साक्षरता की तड़प कैसे पैदा हो ? सहकारिता कैसे ग्रामीण सशक्तीकरण का माध्यम बने ? ये बड़े सवाल नही है। समाधान की राहें भी है, संसाधनों की भी कमी नही है। कमी इच्छाशक्ति व हमारी सोच में है। हर गांव में प्राइमरी स्कूल है, अध्यापकगण प्रतिदिन एक घंटा अतिरिक्त समय देकर निरक्षरों को साक्षर बना सकते हैं। इंटरकालेजों और प्राविधिक संस्थानों में अतिरिक्त संसाधनों से कृषि व सम्बन्धित व्यवस्था की व्यवहारिक शिक्षाएं दी जा सकती हैं। ग्रामस्तरीय कर्मचारियों, संविदाकर्मियों के जनपदस्तरीय चयन व प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की जा सकती है। ग्राम सभाओं की नियमित खुली बैठकें सहमति सहकार के रास्ते खोल सकती है। सहकारिता का अर्थशास्त्र भी समझाया जा सकता है, लेकिन यह तब होगा, जब हम इस दिशा में सोचना प्रारम्भ करेंगे। हमारा अभियान साक्षरता, स्वच्छता व सहकारिता के लिए हो। यह मांग जमीन में उठनी चाहिए। गांवों को बदलने का आंदोलन प्रारम्भ करने के लिए अन्तर्निहित स्वप्रेरणा की शक्तियों का व्यक्त होना अत्यन्त आवष्यक है। वरना पिछले बहुत से वर्षो में स्थानीय विकास प्रषासन एवं पंचायती प्रतिनिधियों का जो गठजोड़ विकसित हुआ है, वह ग्रामीण परिवर्तन की सम्भावनाएं जगाता तो नही दिख रहा।
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(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य हैं)

3 comments:

  1. I saw your post in AMAR UJALA on Monday, June 26, 2017. Excellent thought that needs to be promoted. Can we create a forum of citizens outside bureaucrats lobby. Look forward to be in touch - Virendra Grover. Find me on Facebook, LinkedIn or mail at vngrover@gmail.com Regards.

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  2. सर आपके लेख में जिस तरह से गांव की वर्तमान परिस्थितियों का वर्णन किया गया है वह अति प्रशंसनीय है,प्रशासन को कोई सुधि नही है कि वो इन वास्तविक हालात की जानकारी ले पहल प्रशासन को ही करना होगा वो भी सरकार को ध्यान में रखकर ।

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  3. अच्छा एनालिसिस सर।

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