Tuesday, March 10, 2015

ओह रेजांग ला !



रेजांग ला ! आज के 53 साल पहले 13 कुमांऊ पलटन के जवानों ने लद्दाख की उन बियाबान ऊँचाइयों पर शहादत का बेमिसाल इतिहास लिखा। चीन से हमारी शर्मनाक हार की कहानी में ‘रेजांग ला‘ चुनौती और गर्व की मीनार जैसा है।
लेह से आगे चुशूल सेक्टर में पानगांग झील के दक्षिण, ग्लेशियरों से घिरे सुनसान इलाके ‘रेजांग ला‘ में कुमाऊ बटालियन की चार्ली कम्पनी लगाई गई थी। ऊँचाई सतरह हजार फीट। जवानों के पास द्वितीय विश्व युद्ध की .303 बोर राइफलें थी। यादव सिपाहियों की इस कम्पनी ने पहली बार बर्फीली पहाडि़याँ देखी थी। कम्पनी कमांडर मेजर शैतान सिंह ने अपनी प्लाटूनों के मोर्चे नियत किये। मशीनगनों की दिशा और मोर्टार की फायरिंग के इलाके निश्चित किये गये। शैतान सिंह ने अंदाजा लगाया कि चीनी ‘सरप्राइज‘ का फायदा लेने के लिये अचानक बिना आवाज हमला बोल सकते हैं। कम्पनी इसके लिये तैयार थी। वे अपने सीमित कारतूसों को बरबाद नहीं कर सकते थे। 18 नवंबर 1962 की तारीख को अल सुबह दो बजे अचानक चीनी सेना का हमला प्रारंभ हुआ। रात काफी बर्फ पड़ी थी। भयानक ठण्ड, तापमान-30 डिग्री सेलशियस के लगभग रहा होगा। मोर्चों में पोजीशन लिये मेजर शैतान सिंह की कम्पनी ने चीनी सैनिकों के राइफलों के रंेज में आ जाने तक धैर्य से इंतजार किया और रेंज  में आते ही राइफलों, मशीनगनों मोर्टार से जबरदस्त हमला बोला गया। चीनियों को इस कार्यवाही का अंदाजा नहीं था। उनके पाँव उखड़ गये। थोड़ी देर में सामने के ढलान चीनी सैनिको की लाशों और उनके घायलों से पट गये। दूसरा हमला हुआ फिर तीसरा। परिणाम वही रहा।

18 नवंबर तक चीनी पूर्वी क्षेत्र, नेफा में मैकमोहन लाइन पर मोर्चा फतह कर चुके थे। यहाँ रेजांग ला में चीनी सेनाओ को उम्मीद नहीं थी कि उन पर इतनी बुरी बीतेगी। वे दस गुने से अधिक संख्या में हमला कर रहे थे। चौथे  हमले से पहले उन्होंने कम्पनी की प्लाटूनों पर मोर्टार, आर0सी0एल0, राकेट और तोपखानों से बुरी तरह बम्बार्डमेण्ट शुरू किया। मोर्चे तबाह होते गये। बंकरो पर बंकरे टूटती गई। जवान पीछे नही हटे। मोर्चों में और मोर्चों से बाहर शहादतें होने लगी। मोर्टार लोकेशन बरबाद हो गई। कम्पनी घिर चुकी थी। अगली प्लाटूनों के बचे खुचे घायल सैनिकों को साथ लेकर फिर संघर्ष चला। पहली प्लाटून के एकमात्र जीवित सिपाही सहीराम की एल.एम.जी ने अकेले दम पर चीनियों का पाॅंचवा हमला रोक रखा था। उसे मारने के लिए चीनियों ने राकेटों से वार किया। गोलियों की बरसात और बमों के धमाकों के बीच में दौड़ते और सैनिको का हौसला बढ़ाते मेजर शैतान सिंह बुरी तरह घायल हो चुके थे। चार्ली कम्पनी में सबको पता था कि यह उन सबकी शहादत का मोर्चा है। न उन्हें पीछे हटना था, न सरेण्डर करना था। मेजर शैतान सिंह की मौत दूर नहीं थी। कुछ घायलों को उन्होंने जबरदस्ती वापस भेजा कि कोई तो शहादतों की कहानियाँ बताने के लिये जिंदा रहे। मशीनगनें और गनर शांत हो चुके थे। गोलियाँ भी खत्म हो चुकी थीं फिर भी करीब आते चीनियों को ललकाते हुये नायक चंदगी राम यादव और बचे हुये घायलों ने संगीनों से अपनी आखिरी लड़ाई लड़ी। फिर सब खत्म हो गया। कम्पनी के चारो ओर सैकड़ो की तादाद में चीनी सैनिको की लाशें थीं। वे अपनी लाशें उठा ले गये और आगे नहीं बढ़ सके। चीनियों का लद्दाख युद्ध यहीं खत्म हो गया। फिर बर्फ के लगातार तूफानों ने युद्ध क्षेत्र को अपने प्रगाढ़ आलिंगन में ले लिया। पूरे इलाके में कई मीटर बर्फ बिछ गयी। जो जीवित भी थे वे भी मोर्चों में समाधिस्थ हो गये।

मौसम की मुश्किलें कम होने पर कई महीने बाद जब बर्फ कम हुई और खोजते हुए हमारे सैनिक वहाँ पहुँचे तो देखते हैं कि सब कुछ वैसे ही है। जैसे कि युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ। वही मोर्चे, मोर्चों में सैनिक। वे राइफलों पर टिके हुये बर्फ में जम गये थे। टूटी मशीनगनों, बरबाद मोर्टार के साथ मोर्चों में वैसे ही पोजीशन लिये जवान। जमे हुये खून के साथ खुद जम गये सैनिकों की कतारें, राइफलों के ट्रिगरों पर जम गई उगलियाँ, बर्फ हो गई आँखों से दूर क्षितिज पर निगाहें लगाये जवान, जैसे अभी भी दुश्मनों का इंतजार हो। वहाँ दिल्ली में नेताओं के बयान चलते रहे। शहादतें यहाँ रेजांग ला में दफन रही। एक सैनिक, घायल साथी को पट्टी बाँधते बाँधते एक हाथ में सिरिंज लिये हुये बर्फ बन गया। कम्पनी को मोर्टार के एक हजार गोले एलाट थे, जिसमें से सिर्फ सात बचे थे। मोर्टारमैन हाथ में बम लिये लिये जम गया। कोई जिस्म नहीं जिस पर गोलियों के, बमों के निशान न हो। सारा दृश्य ऐसा था कि जैसे कि वक्त के दरमियाँ वह क्षण हमेशा के लिये स्थिर हो गया हो। मेजर शैतान सिंह का शरीर कम्पनी बंकर के पास मिला। हाथ और पेट पर मशीनगन की गोलियों के निशान थे। नायब सूबेदार सुरजा के माथे पर भाग्य की लाइनों  के ठीक ऊपर बम के स्प्लिंटर का गहरा घाव। कनपटी तक गहरा चटक लाल खून बहकर जम गया था। वे धरतीपुत्र, धरती और पूर्वजों का कर्ज अपने खून से अदा करते हुये बर्फ की सफेद चादर के नीचे भी जैसे सुकून से नहीं सोये। इस मोर्चे में कुल 114 अधिकारी और जवान शहीद हुये।

जब भी 1962 के युद्ध के असफल नेतृत्व, कमजोर कमांडरों, बिना कारतूस जूझती सेनाओं, गिरफ्तार होते सैनिको, तबाह होते मोर्चों की बातें होंगी तो रेजांग ला की खुद्दारी की चमक हमें ढांढस बँधायेगी। मेजर शैतान सिंह को परमवीर चक्र दिया गया। समस्त जवानों की अंतिम विदाई राजकीय सम्मान से की गई। जुझारूपन, साहस, जीवटता, राष्ट्रभक्ति की संयुक्त परिभाषा अगर खोजनी हो तो वह है ‘रेजांग ला‘। पता नहीं उस शहादत के इतने साल बाद भी हमारे बड़े नगरों में रेजांग ला के नाम पर कहीं कोई पार्क, कोई सड़क है या नहीं। हमारी राजधानी दिल्ली में कोई स्मृतिस्तंभ ही हो जहाँ ‘रेजांग ला‘ के शहीदों के नाम खुदे हो ? कनाट प्लेस जैसा कोई चैक ही हो जिसे ‘रेजांग ला‘ चैक का नाम दिया गया हो। नही, ऐसा कुछ नही है। किसी ने उनकी बहादुरी के गीत नहीं लिखे। किसी मूर्तिकार में बर्फ के मोर्चे में जमे उन जवानों की मूर्तियाॅ नही बनाई। नहीं मालूम कि पिछले 53 सालों में रेवाड़ी-दादरी के उन बहादुर यादवो को कभी याद किया गया या नहीं, जो अपने खून के निशान उन पहाड़ो  पर छोड़ आये हैं। यह युद्ध  ग्रीस थर्मोपाइले में 480 ई0पू0 फारसी सेना से मुकाबला करते लियानिडास के 300 स्पार्टा योद्वाओं की जीवटता से कहीं कम नहीं था लेकिन किसी फिल्मकार ने अपने यहाॅं उनकी कहानी परदे पर नहीं उतारी। हमारी एहसानफरामोशी के बावजूद वो वहीं है अभी भी उन्हीं मोर्चों में, भिंचे हुए जबड़ों और तनी हुई संगीनों के साथ,  अपने मेजर की सरपरस्ती में। वे आँखे आज भी राइफलों के निशानों पर दुश्मनों को खोजती हैं। ‘रेजांग ला‘ शहादत की  एक भूली हुई कहानी की तरह है जिसे सारे राष्ट्र को बताया जाना अभी बाकी है। 

कैप्टन आर. विक्रम सिंह 
आई .ए.एस.







6 comments:

  1. Salute to the soldiers n u for keeping in touch with so it's great, on the other hand v being the citizen of India must learn a lesson n c that v do our duties towards our country to the best possible.

    ReplyDelete
  2. अद्भुत!
    रेज़ाग ला की घटना पर चेतन आनंद ने 'हक़ीक़त' फिल्म बनायी थी, पर वह फ़िल्मी नाटकीयता से नहीं बच सके।
    क्या हम ऐसे सैनिकों के लायक हैं?

    ReplyDelete