Thursday, February 26, 2015

बदलाव की ओर कश्मीर



( 15 फरवरी 15 को दैनिक जागरण में प्रकाशित )
बादलों के नीचे पहाड़ो पर बर्फ थी। हमारा जहाज पीरपंजाल की ऊंची पहाडि़यों के ऊपर उड़ रहा था। बहुत पहले इन्हीं हवाई रास्तों पर 1947 में 27 अक्टूबर को डकोटा जहाजों से सिख जवानों की प्लाटूनें जा रही थी। वे इमरजेन्सी के हालात थे। कबाइली हमलावर बारामूला पहुॅंच चुके थे। श्रीनगर सिर्फ 50 किलोमीटर दूर था। जो पहला डकोटा उड़ा उसमें सिख पलटन के कमाण्डिंग आॅफिसर कर्नल रंजीत राय थे जो दूसरे दिन बारामूला में कबायलियों से लड़ते हुये आजाद भारत के पहले शहीद बनने वाले थे। ठीक उसी वक्त बारामूला में मकबूल शीरवानी, नेशनल काॅन्फ्रेस का एक कार्यकर्ता कबाइली सरदारों में यह खबर फैला रहा था कि भारतीय सेनायें श्रीनगर पहुॅच चकी है। कबाइलियों को मजबूरन खेतो का रास्ता लेना पड़ा। बात खुलने पर मकबूल को कील ठोक कर लटका दिया गया, बीसो गोलियाॅ मारी गई। लेकिन उसने सेना को उतरने का वक्त दिला दिया था। डी0एस0पी0 बारामूला ने बताया कि आतंकियों के भय से उसकी मजार पर कोई नहीं जाता। 

अगर सेनायें वक्त पर न पहुॅंचती तो एयरपोर्ट कबाइली पाकिस्तानी कब्जे में चला गया होता। यही कश्मीर घाटी आज पाकिस्तान के पंजाबियों, कबायलियों की कालोनी होती। तब वहाॅं पर महाराजा हरीसिंह का वह नागरिक कानून लागू न होता जिसके कारण कोई कश्मीर में न बस सकता है, न सम्पत्ति खरीद सकता है। इसी कानून ने 1947 में पाकिस्तान से कश्मीर आये शरणार्थियों को आज तक वोट के अधिकार से वंचित कर रखा है। यासीन मलिक जैसे अलगाववादी इन्हें वोट का अधिकार देने के खिलाफ है। 

घाटी लगभग पंडितविहीन हो चुकी है जो बचे हैं, वे अक्सर अपने दो नाम रखते है। अगर आपका नाम मनोहर है तो आप जरूरत के मुताबिक मुनव्वर हो जाते है। बड़गाम से श्रीनगर के रास्ते पर निराश्रित, निवार्सित पंडितों के लिये एक सरकारी कालोनी बनाई गई है। करीब 200 परिवारों ने वहाॅ आश्रय ले रखा है। वे अभिशप्त, शापित लोग छोटे कारोबार, नौकरियाॅ वगैरह कर भय के उस माहौल में अपनी जिंदगी चला रहे है। ठंड और मनहूसियत के बीच दो एक परिवारों से मुलाकात हुई। सवाल बनते थे कि जब बढ़ती कट्टरता आतंकवाद का अंदाजा आप लोगो को हो रहा था तो फिर एक साथ खड़े होने की कोई कोशिश क्यों नही हुई ? पंडितों ने फिलीस्तिीनियों की तरह हथियार उठाना क्यों नहीं सीखा ? क्यों सिखों के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाने की कोशिश नहीं हुई ? क्यों वे जेहादियों के आसान लक्ष्य बनते रहे ? कश्मीर के बड़गाम जिले में यह देखना आश्यर्चजनक था कि यहाॅ सिखों का भी एक ग्राम है। धर्मसाल सिंहान में सिखों के सत्तर घर है एक नया बना गुरूद्वारा भी है। वहाॅ एक बुजुर्ग कुलदीप सिंह मिले। छूटते ही बताने लगे कि जहाॅगीर के साथ गुरू हरगोविंद जी आये थे तब यह गाॅव बसा था। श्रीनगर बारामूला में सिखों की आबादी है। शिया भी घाटी में 20 प्रतिशत के लगभग है उनमें आतंकवादी सोच नही के बराबर है। वे अक्सर पंडितों के लिये खड़े भी हुये फिर इन सूत्रों को जोड़ा क्यों नही जा सका ? 

19 जनवरी 1990 का वह दिन कश्मीरी पंडितो को कभी नही भूलेगा जब अचानक मस्जिदों से निकलकर निजामे मुस्तफा के नारे लगने लगे। सडकों पर जलते टायर थे आगजनी थी और थी अल्लाहोअकबर की ललकार। लाउडस्पीकरों से कश्मीर छोड़ने वरना अंजाम भुगतने की चेतावनी दी जा रही थी। डरे हुये पंडितो को लगा कि उनकी जिंदगी का आखिरी दिन आन पहुॅचा है। वह आतंक उनके दिलों से आज तक नहीं निकला। उस दिन जैसे अंधे, मजहबी, जेहादी जुनून ने घाटी को अपनी गिरफ्त में ले लिया हो। लोग मारे जाने लगे। एक कश्मीरी पंडित लड़की को आरा मशीन पर जिंदा चीर दिया गया था। कोई अलगाववादियों के खिलाफ नहीं गया। यह कैसा मनोविज्ञान है ? ये जो पंडितों को धर्मपरिवर्तित करने का फतवा जारी कर रहे हैं उनके हिंदू पूर्वजों का भी कभी भयानक तरीके से धर्मपरिवर्तन कराया गया था। 

बहरहाल, वक्त के साथ हालात बदल रहे हैं। जिस दिन शेरे कश्मीर स्टेडियम में प्रधानमंत्री की चुनावी सभा थी पूरे श्रीनगर में बंदी का नजारा था। बाजार, आफिस सब बंद। उस दिन सर्किट हाउस जो स्टेडियम के ऐन पीछे है वहाॅ तक हम चुनाव डयूटी में लगे लोगों की गाडियाॅ भी नही आ र्पाइं। पैदल रास्ते पर सन्नाटा पसरा था। जब गाडियाॅ मिली तो हमने पूरे श्रीनगर शहर का चक्कर लगाया। बंदी का परफेक्ट माहौल था। फिर भी हर रास्ते से छोटे समूहों में लोग स्टेडियम की ओर जाते जरूर दिखे। 25 सालों के दौरान इतना खून बहाने पर भी अलगाववादी आतंकियों को वह जमीन नही मिली जो उनका लक्ष्य थी। आज इतने बरसों में इस चुनाव तक यह सोच अब घाटी में कमजोर हो चली है। लगातार बायकाट से ऊब कर जनता बडे़ पैमाने पर वोट के लिये बाहर आई। वोट प्रतिशत में यह बढोत्तरी दरअसल आम जनता द्वारा सत्ता की लगाम पकड़ने की कोशिश है। एक सैन्य अधिकारी ने बताया भी कि 2008 के पिछले चुनावों में गाॅवों से काॅल आती थी कि मेहरबानी होगी जनाब, फोर्स की एक गाड़ी भेज दो। गाॅव वाले चाहते थे कि फोर्स आ भर जाये जिससे कि वे आतंकियों को यह सफाई दे सके कि क्या करें, फोर्स ने जबरदस्ती वोट डलवाये। इस बार चुनाव में कई सरपंचो को मारने के बावजूद इनमें जनता को रोक पाने की ताकत नही रही। कश्मीरियों ने खुद ही वोट देने के रास्ते बनाये।

अलगाववाद सिर्फ कश्मीर घाटी में है। जम्मू, लद्दाख में ऐसा सवाल ही नहीं है। सीमांत पर्वतीय कश्मीर के गूजर बकरवाल भी अलगाववाद के गुनाहगार नहीं है ! सिर्फ घाटी में कुछ पाकिस्तानपरस्त नेता माहौल बनाये हुये है। देखा जाये तो P O K और भारतीय कश्मीर में बहुत फर्क है। P O K का बुरा हाल है। हमारे एक ड्राइवर ने बताया भी कि उस पार से आने वाले हमें कहते है कि भाई तुम लोग तो जन्नत में हो और पाकिस्तान में आना चाहते हो। तुम्हारी अक्ल पर तरस आता है। हमसे कोई पूछे तो आज ही हम हिंदुस्तान का हिस्सा हो जाये। 

शंकराचार्य पहाड़ी के वृक्षों से आच्छादित रास्ते पर पैदल चलते हुये नीचे डलझील और श्रीनगर का खूबसूरत विस्तार दिखता है। यह जो श्रीनगर है भारत का सबसे अमीर शहर हो सकता है। पर्यटक होटल ही नहीं, तंबुओं में भी रूकने को तैयार हो जायेगे। कैम्पिंग के लिए कश्मीर के विस्तीर्ण सौन्दर्य स्थलों में इफरात मैदान हैं। यहाॅ रेलवे पहुॅचने ही वाली है। फिर सारा भारत कश्मीर का रूख करेगा। पर्यटन, हैण्डीक्राफ्ट, ड्राईफ्रूट, केसर का बाजार ही कश्मीर को बदल कर रख देगा। यह जो बेवजह का पाकिस्तानी कार्ड है इसे फेंक देना होगा, कश्मीर की बेहतरी के लिये। मन्दिर के रास्ते के एक व्यू प्वाइंट पर पिकनिक कर रहे कश्मीरियों ने बताया कि ऊपर हिन्दुओं का मन्दिर है। आज उन्हें भूला हुआ इतिहास जानने की जरूरत है कि यह शंकराचार्य मंदिर दरअसल उनके पूर्वजों का है।  


कैप्टेन आर0 विक्रम सिंह
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा में है)

1 comment:

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