Monday, March 2, 2015

कश्मीरियत का तकाजा

इसे मुफ्ती मुहम्मद सईद की स्टेट्समैनशिप कहा जाएगा जिसकी बदौलत आज यह असंभव सी सरकार खड़ी हुई है। जम्मू के बगैर ही यह बन सकती थी, लेकिन नहीं। यह सरकार खुद ही एक संदेश की तरह है। यह सच्चे अर्थो में ‘जम्मू और कश्मीर’ की सरकार है। समस्या सरकार चलाने की ही नहीं, बल्कि वह संयुक्त वैचारिक आधार तलाशने की भी है जिस पर खड़ा हुआ जा सके। यह प्रयोग हुर्रियत को हाशिये पर धकेल देगा। कश्मीर प्रवास के दौरान यह सवाल कौंधता रहा कि आखिर इस अंतर्विरोधी कश्मीरी सांस्कृतिक-सामाजिक परिदृश्य का निष्कर्ष क्या है? और कश्मीरी बुद्धिजीवियों की क्या राय बनती है? डल झील के किनारे श्रीनगर विश्वविद्यालय का खूबसूरत परिसर है। वहां ‘सेंटर फॉर सेंट्रल एशियन स्टडीज’ द्वारा लाल देद और नंद ऋषि उर्फ शेख नूरुद्दीन वली की फिलासफी पर एक सेमिनार आयोजित किया गया था। श्रीनगर से प्रस्थान के अंतिम दिन उस विभाग में जाने का अवसर मिला। कई सवाल बनते थे। कश्मीर के उस इतिहास का क्या होगा जो कल्हण की राजतरंगिणी की धारा के साथ प्रवाहमान है? एक सूफी इस्लाम है जो कश्मीरी संस्कृति में रच बस गया है। दूसरा वहाबी, कट्टर इस्लाम है जो आतंक का सहारा लेकर घाटी में हावी होना चाहता है। हिन्दू -बौद्ध काल के कश्मीर की कोई हैसियत आज नहीं रह गई है, लेकिन बुलबुलशाह, शाह हमदान जो कश्मीर का इस्लाम से परिचय कराने वाले सूफी थे, उनकी परंपराओं का क्या होगा? कश्मीरी भाषा का भविष्य क्या है? 80 के दशक के पूर्व घाटी में हिन्दू भी थे और धर्मनिरपेक्षता की बातें थी। साझा संस्कृति की बात भली लगती थी। तब संस्कृति की दरिया के दो किनारे थे। एक था शैव मतावलंबियों का हिंदू कश्मीर दूसरा सिकंदर बुतशिकन का कश्मीर। सिकंदर वह सुलतान है जिसने बलपूर्वक कश्मीरी पंडितों को मुसलमान बनाया और न मानने वाले लाखों का कत्ल किया। इन दोनों सीमाओं के बीच साझा संस्कृतियों की राह को कश्मीरियत के नाम से नवाजा गया। यह रास्ता कश्मीर की भाषा, साहित्य, संस्कृति का नकार नहीं करता और इस्लाम की सूफी रिवायत को स्वीकार करता है। यह शेख अब्दुल्ला थे, जिन्होंने सबसे पहले कश्मीरियत की बात की। यह कश्मीर की उस सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक है जिसके बगैर कश्मीर, कश्मीर नहीं है। शैव और सूफी परंपराएं कश्मीरियत की इसी झील में आकर समाहित होती हैं। उस सेमिनार में से जो बात निकलकर सामने आई वह यही है कि लाल देद और शेख नूरुद्दीन इसी कश्मीरियत की साझा संस्कृति के पथप्रदर्शक हैं। विपरीत ध्रुवों से बनी इस सरकार को वैसे ही बचाना पड़ेगा जैसे कोई तूफान में चरागों की लौ को बचाता है। आज वे सूत्र कमजोर हैं जो कश्मीर को भारत से जोड़ते हैं। चौदहवीं सदी से पहले कश्मीर हिंदू धर्म का प्रमुख केंद्र था। वह सांस्कृतिक इतिहास जैसे आज महत्वहीन हो चुका है। मजहबी कट्टरवादियों के बढ़ते दबाव में शायद आज इसे याद करने की भी इजाजत नहीं है। दिल्ली में अब तक जो नेतृत्व रहा है उसका हिंदुस्तानपरस्ती से कोई खास सरोकार नहीं रहा। ऐसे में कश्मीर का राह से भटक जाना बड़ा स्वाभाविक था। एकता के बिंदुओं की निशानदेही नहीं की गई। आम कश्मीरी न तो दहशतगर्द है, न ही हिन्दू विरोधी। वह तो एक सीधी-सरल सोच का आदमी है, जिसे हालात ने मजबूर बना दिया। बातचीत में कई लोगों ने कहा भी कि आप समझ नहीं पा रहे कि हम लोग अपने नाम के साथ इस्लाम से पहले के दिनों की अपनी जातीय पहचान जैसे, भट्ट, वानी, रैना, पंडित, टाक, लोन, गुरू क्यों लिखते हैं? जाहिर है, हम अपनी विरासत भूलना नहीं चाहते। हमारे कल्चर में बहुत कुछ न भूलने लायक है। कश्मीर घाटी में लाल देद या मां लालेश्वरी एवं उनके मानस पुत्र शेख नूरुद्दीन वली या नंद ऋषि की परंपरा मजहब और संस्कृति के आपसी संवाद का प्रतीक है। उनकी मजार चरारेशरीफ का आतंकियों द्वारा जलाया जाना दरअसल कश्मीरियत पर हमला था। अपनी प्रार्थनाओं में वे शिव से वरदान मांगते दिखते हैं। भेड़ चराता वह चरवाहा/क्षणमात्र में बुला लिया गया/अचानक/और हरमुख से सीधे उड़ गया स्वर्ग को/हे शिव! मुङो भी वही वरदान दो। लाल देद ने कहा-शिव हैं व्याप्त सर्वत्र/मृत्यु के जाल के साथ/यह जाल तीर्थयात्र भी है/यदि नहीं मुक्त हुए/ जीवित रहते/तो कैसे मुक्त होंगे मृत्यु के बाद/ध्यान की गहनता में/स्वयं में पहचानो अपने स्वत्व को। अब कश्मीर की हिंदूविहीन घाटी में लाल देद और शेख नूरुद्दीन रचित शिव की स्तुतियों का भला अर्थ क्या रह जाता है? ऐसी स्थिति में लाल देद और शेख नूरुद्दीन की साझा संस्कृति हाशिये पर न चली जाएगी? आज जिहादी सोच कश्मीर को उसकी रिवायत, संस्कृति, भाषा से पूरी तरह से काट कर एक उन्मादी मजहबी राज्य बनाने पर आमादा है। कश्मीर शेष भारत से अलगाव महसूस करता है। हमारे नेताओं ने कश्मीर को लेन-देन का सामान बना दिया है। कश्मीर कोई जीता हुआ इलाका नहीं, बल्कि हमारे वजूद का हिस्सा है। जाहिर है, हमारे नेताओं से गलतियां हुई हैं। कश्मीरियत की इसी साझी विरासत के लिए ही सही, घाटी में पंडितों की वापसी बेहद जरूरी है। चर्चाओं में कश्मीर के बुद्धिजीवी वर्ग ने चिंता व्यक्त करते हुए स्वीकार भी किया कि आजकल सलाफी वहाबी तबकों की गतिविधियां उभार पर हैं, जबकि कश्मीर को इस्लामी रंग सूफियों का दिया हुआ है। अब जब वहाबियों के द्वारा यह सूफी परंपरा ही गैर इस्लामी करार दी जा रही है तो उस मुस्लिम समाज की क्या हैसियत बनेगी जिसे सूफियों ने इस्लाम में दीक्षित किया है? कल इन्हें भी अहमदियों की श्रेणी में खड़ा कर दिया जाएगा। कश्मीर को सूफी संतों से अलग देखा भी नहीं जा सकता। कश्मीरियत के बहुत से रंग कश्मीरी भाषा के सबसे लोकप्रिय कवि गुलाम अहमद माहजूर की शायरी में भी पेज दर पेज बिखरे हुए हैं। मैं नहीं हूं आज/जैसा था पहले कभी/हमारी महान सभ्यता के/जाग्रत अवशेष दिखंेगे बिखरे हुए/ पवित्र शिलाओं में। पहाड़ों से आते झरनों की तरह झरती माहजूर की शायरी कश्मीर की झीलों, चिनारों, विरासतों और मुहब्बतों की बातें करती है। कश्मीरी भाषा ही कश्मीरियत, कश्मीरी संस्कृति की सच्ची वाहक है। अब इसे पीरपंजाल के पर्वतों से नीचे उतरते हुए डोगरी को भी स्पर्श करने की जरूरत है। कश्मीरियत तो कश्मीर को शेष भारत से जोड़ने का सबसे मजबूत पुल है। संपूर्ण कश्मीर घाटी कश्यप ऋषि के वंशज कश्मीरी पंडितों की थी। किसे पता था कि ऐसा वक्त भी आएगा जब कश्यप ऋषि के वंशजों को अपना धर्म बदलने को मजबूर होना पड़ेगा। इन वंशजों को अपना इतिहास भूल जाने को बाध्य कर दिया गया। जो कश्मीरी पंडित सदियों के नरसंहार और बलपूर्वक धर्म परिवर्तन से किसी तरह जीवित बचे हैं वे आज अपने घरों से बेदखल हैं। उनकी वापसी हो। वीरान, खंडहर हो चुके मंदिरों को उनकी पूर्व स्थितियों में लाया जाए। आज जो मस्जिदे हैं वे भी ऋषि कश्यप के वंशजों की ही हैं। कश्मीर की सुबहों में मस्जिदों से उठती अजान के साथ पहले की तरह भक्तों के जयकारे और घंटों का निनाद शामिल हो, यही कामना है। इंशाअल्लाह! यही कश्मीरियत का तकाजा भी है। 


(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा में हैं)

5 comments:

  1. मै आप का लेख हमेशा ही दैनिक जागरण में पढ़ती हूँ . आप अपने लंबे प्रशासनिक अनुभव को बहुत ही उम्दा तरह से हमसे बाटते हैं . मैं फेसबुक के माध्यम से भी आप से जुड़ना चाहती हूँ क्या आप अपना लिंक देंगे .

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  2. आप जिस एंगल से देश के इतिहास की जानकारी देते हैं वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। काश्मीर पर आजादी के समय के तत्कालीन नेतृत्व की कारगुजारी के कारण ही देश के सामने काश्मीर में भारत को संघर्ष करना पड़ रहा है।

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  3. आप जिस एंगल से देश के इतिहास की जानकारी देते हैं वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। काश्मीर पर आजादी के समय के तत्कालीन नेतृत्व की कारगुजारी के कारण ही देश को काश्मीर में संघर्ष करना पड़ रहा है।

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  5. आप जिस एंगल से देश के इतिहास की जानकारी देते हैं वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। काश्मीर पर आजादी के समय के तत्कालीन नेतृत्व की कारगुजारी के कारण ही देश को काश्मीर में संघर्ष करना पड़ रहा है।

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