Sunday, July 20, 2014

विरोध में संभावनाएं


(आज २० जुलाई को दैनिक जागरण में प्रकाशित )

सतह से नीचे हिंदी के राजनीतिक, प्रशासनिक विरोध का लावा अभी भी गर्म है। गत दिनों हिंदी का विरोध गृह विभाग के एक सामान्य से शासनादेश से भड़क गया। अखिल भारतीय परीक्षाओं में हिंदी का झंडा बुलंद होना प्रारंभ ही हुआ था कि सी-सैट जैसी बला आ गई। यह अवधारणा ही गलत है कि सिविल सेवा क्षमता की परीक्षा महज दो घंटों में हो सकती है। अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखने की यह कोशिश सबके सामने उजागर हो गई है। आज हिंदी माध्यम के लाखों परीक्षार्थी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं। दक्षिण प्रदेशों में हिंदी की स्वीकार्यता बहुत बढ़ी है, हिंदी जरूरी हो चुकी है, आम लोग मानने लगे हैं। लेकिन राजनीति इसे नहीं स्वीकारती। वह अभी भी पेरियार के काल में खड़ी है। अभी कुछ समय पहले हैदराबाद के एक हिंदी संस्थान में जाने का मौका मिला था। जो बात पता चली वह आश्चर्यचकित करने वाली थी। हिंदी के बेसिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वालों की संख्या दक्षिण के चार राज्यों में पिछले वर्षो की तुलना में लगभग दस गुने तक बढ़ गई है। दक्षिण भारत का युवा हिंदी को लेकर हो रही राजनीति अच्छी तरह समझ रहा है। वह हिंदी जानना-पढ़ना चाहता है। स्वीकार्यता के बावजूद सत्ता में अभी तक हिंदी को भागीदारी नहीं मिली है। हमने दिल्ली के बहुत से बिजनेस सेमिनारों में हिंदी को बड़ी बेचारगी से खड़े देखा है। सुदूर पूवरेत्तर में तो आतंकवादियों द्वारा गाहे-बेगाहे हिंदीभाषियों को कत्ल कर देने की परंपरा चलती है यहां दिल्ली में सी-सैट कत्लेआम का नया शस्त्र है। इन हालात में भी हिंदी पट्टी हिंदी वालों के लिए कभी खड़ी हुई हो, याद नहीं पड़ता। कमजोरियां अपनी हों तो किसी और को क्या दोष दिया जाए। अजब हैं इस भाषा के पैरोकार, जिन्हें हिंदी की सल्तनत बढ़ाने में कोई दिलचस्पी ही नहीं है। हम उन इलाकों की ओर नहीं बढ़े जो हिंदी और भारत के लिए अनजाने से हैं। किसी ने भी नागालैंड, मणिपुर की परवाह नहीं की। कोई भी अरुणाचल में गांवों की कहानी कहने नहीं गया, न ही हिंदी के किसी कथाकार ने केरल, तमिलनाडु की पृष्ठभूमि पर साहित्य-सृजन का प्रयोग ही किया है। हम हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात करते हैं, लेकिन उन इलाकों को अछूता छोड़ देते हैं जिनके दम पर हिंदी असल में राष्ट्रभाषा बन सकती है। कभी धर्म के मठाधीशों ने पर्वतीय, वनवासी समाज को लावारिस छोड़ दिया था, परिणाम यह हुआ कि वह जनजातीय समाज जो कभी अपनी संस्कृतियों के लिए मरने-मारने पर उतारू था, अचानक विदेशी धर्मो को मानने वाला बन गया। यह कितनी आश्चर्यजनक बात है कि हमारे पूवरेत्तर का समाज, असम, मणिपुर की समृद्ध भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं के बावजूद सात समंदर पार के विदेशी धर्मो को अपना लेता है। हमने क्षेत्रीय भाषाओं के विपुल साहित्य से हिंदी प्रदेशों को परिचय नहीं कराया। हिंदी वालों में वह जुनून नहीं है। दूसरी ओर अंग्रेजी में सलमान रुश्दी से लेकर अभिताव घोष, अरविंद अडिग तक भारतीय लेखकों की लंबी श्रृंखला चली आ रही है। अंग्रेजी साहित्य में भारतीय पृष्ठभूमि पर रची स्तरीय रचनाओं की बाढ़ आ रही है, हमारे साहित्यकार अपने ही घरों में कैद घुटन व संत्रस की कथाएं लिखते रहे हैं। ऐसा क्यों है कि हमारा हिंदी साहित्यकार तिब्बत, बर्मा, ताईवान, सिंगापुर तो दूर अपने ही देश की सीमाओं तक अपने साहित्य का विस्तार नहीं कर पाया। कोई यथा-स्थिति की मन:स्थिति है जो टूटे नहीं टूटती। गांधी की कहानी कहने के लिए गिरिराज किशोर अफ्रीका तक चले गए। राहुल सांकृत्यायन ने न जाने कहां-कहां के वृत्तांत लिखे, लेकिन इन प्रेरणाओं का प्रभाव हमारे साहित्य की सामान्य धारा पर पड़ ही नहीं सका। हमने अपनी सीमाएं बना ली हैं और अब जैसे हममें राष्ट्रीय भाषा की महत्वाकांक्षा भी नहीं है। पूवरेत्तर पर अनिल यादव का यात्र-वृत्तांत ‘वह भी कोई देश है महराज’ इन सीमाओं के पार हिंदी की संभावनाएं जगाता है। जोखिम के और भी इलाके हैं। हमें हिंदी की कलम से आदिवासी क्षेत्रों से लेकर कश्मीर और नेपाल तक की कहानियां चाहिए। कोई हिंदीवाला श्रीलंकाई तमिलों की प्रताड़ना, अवसाद की भी तो कहानी लिखे। जस्टिस मारकण्डेय काटजू ने सिर्फ सुझाव दिया था कि हिंदी सभी को सीखनी चाहिए। वह लोकतंत्र ही क्या जिसमें इस सरल सी बात का भी विरोध न हो। विरोध हुआ भी, उन्होंने स्पष्ट भी किया कि यदि कोई नहीं चाहता तो वह इस सुझाव को अस्वीकार कर सकता है। गैरहिंदी क्षेत्रों में हिंदी का एक बड़ा पाठक वर्ग बन रहा है जिसे अपने परिवेश से जुड़े हिंदी साहित्य की दरकार होगी। वहां के स्थानीय हिंदी अखबार, पत्रिकाएं इस कमी को पूरा कर सकते हैं। अत: प्रोत्साहन की आवश्यकता है। हिंदी की बात करें और उर्दू का जिक्र न आए तो बात पूरी नहीं होती। हिंदी में उर्दू साहित्य को स्वीकार कर इस दूरी को हम चंद कदमों में ही नाप सकते हैं। जैसे-जैसे उर्दू साहित्य देवनागरी में छपता जा रहा है वैसे-वैसे यह फर्क खत्म होता जा रहा है। हिंदी के लिए जरूरत है एक सुव्यवस्थित भाषा प्रबंधतंत्र की जो संभावनाओं की नई दिशाओं में राहें बना सके।1कोई भी अभियान बिना किसी स्वप्न और जुनून के नहीं चलता। विरोध संभावनाओं के द्वार भी खोलता है। हिंदी के क्षितिज व क्षेत्र का विस्तार ही विरोध का समाधान है। जो आज का इंडोनेशिया है वह कल श्रीविजय साम्राज्य था। भारत के सांस्कृतिक विस्तार के इतिहास एवं सुदूर पूर्व के साहित्य में प्रदर्शित भारतीय संस्कृति के प्राचीन वैभव को हम हिंदी के सामान्य लोग अभी तक नहीं जान सके हैं। रामकथा किन रूपों में वहां कही गई है। हिंदी पूवरेत्तर के साहित्य को मुख्यधारा में ला सकती है। एक स्वप्न है जो हर हिंदी भाषी को देखना चाहिए कि हमारी हिंदी कश्मीर से श्रीलंका और हिंगलाज बलूचिस्तान से अंकोरवाट कंबोडिया तक की कथाएं कह सकें। भारतीय भाषा-संस्कृति ने तो उस प्राचीन काल में सभ्यताओं की सीमाओं का अतिक्रमण किया था। आज के सरल, सुगम संचार संपर्क के जमाने में हिंदी के विस्तार का यह लक्ष्य कोई असंभव तो नहीं है। (लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं)

No comments:

Post a Comment