Wednesday, June 4, 2014

जोड़ने का सही समय

(  4जून ' 14 को दैनिक जागरण में प्रकाशित )



राष्ट्रीय एकीकरण के लक्ष्य को जमीन पर उतारने का क्या रास्ता है? एकीकरण का तात्पर्य होगा क्षेत्रीयताओं से मुक्ति, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का विकास। जैसे गंगा स्वच्छता एक राष्ट्रीय लक्ष्य है। इस अभियान का प्रारंभ एक राष्ट्रीय जन आंदोलन की भांति हो सकता था, लेकिन यह सिर्फ नगर विकास के प्रोजेक्टों और फाइलों का विषय हो गया। नक्सलवादी समस्या के समाधान के लिए प्रभावित राज्यों में सामाजिक आर्थिक समानता के लिए विकास एक राष्ट्रीय बहुराज्यीय आंदोलन के रूप में प्रारंभ हुआ होता तो हमारे सामने सार्थक परिणाम होते। ये बड़ी समस्याएं हैं और राष्ट्रीय एकीकरण के मुद्दे भी हैं। हम चाहते हैं कि पूवरेत्तर भारत की बेरोजगारी खत्म करने के लिए एक राष्ट्रीय नीति बने, लेकिन यह नहीं हो पाता। कश्मीर के युवक सारे भारत में कार्य करें। लेकिन कहीं से कोई पहल नहीं होती। हम चाहते हैं कि वाराणसी, जौनपुर से नौकरी के लिए कोलकाता, मुंबई जाने वाले लड़के मराठी या बंगला में यहीं से शिक्षित हो जाएं जिससे स्वीकार्यता की समस्या न हो, लेकिन न तो ऐसी कोई शिक्षा व्यवस्था है और न ही ऐसी कोई योजना ही है। ये अपेक्षाएं किसी एक विभाग के विषय नहीं हैं। इसके लिए विभागीय संकीर्णताओं को दरकिनार कर, क्षेत्रीयता से बाहर आकर नीतिगत पहल की अपेक्षाएं होंगी। आजादी के पिछले 67 वर्षो में हमने देखा है कि क्षेत्रीय शक्तियां, जिनका राष्ट्रीय एकीकरण के विचार से कोई वास्ता नहीं रहा, राज्यों में क्रमश: सशक्त होती गई हैं। इसमें एक बड़ी बाधा सरकारी विभागों में सामंजस्य का अभाव एवं अलग-अलग काम करने की प्रवृत्ति है। इसे अक्सर ‘डिपार्टमेंट्स इन साइलोस’ अर्थात् अलग-अलग गोदामों में स्थित विभाग जैसे मुहावरे से स्पष्ट किया जाता है। विभागीय प्रमुख यदि विभागीय हितों को प्राथमिकता देने लगें तो समग्र विकास किसके खाते में जाएगा? उदाहरणार्थ यदि विकसित हो रहे ग्रामीण क्षेत्रों में नगरीकरण की सुविधाएं देना चाहें, जो समय के साथ आवश्यक है, तो आप पाएंगे कि इस प्रकार की योजनाएं नहीं हैं। हाईवे ग्रामीण क्षेत्रों से निकलते हैं, उन पर बेतहाशा अनियोजित मंडियां, बाजार बनते जा रहे हैं। उन्हें नियंत्रित करने की कोई व्यवस्था नहीं है। जब आप नगरीय क्षेत्रों में उद्यानीकरण, वनीकरण जैसे अभियान चलाना चाहेंगे तो वन विभाग के पास शहरों के लिए ऐसी कोई योजना ही नहीं है। बंधी हुई लीक पर चल रहे विभागों में अक्सर परिवर्तन की सोच नहीं होती। इसी तरह नक्सलवादी समस्या के मद्देनजर हमें ऐसा विभाग चाहिए जो वनवासी क्षेत्रों में सड़क, संपर्क मार्ग निर्माण के कार्य के साथ उन मार्गो के माध्यम से उद्योग, व्यापार, आधुनिक रोजगार संभावनाएं बढ़ाने की भी बात सोचता हो। साथ ही आदिवासी युवकों- युवतियों को शिक्षण प्रशिक्षण देते हुए उन्हें राष्ट्रीय स्तर तक के रोजगार दिला सकने में सक्षम हो। नहीं, ऐसा कोई विभाग नहीं है जो अलग-अलग कंपार्टमेंट में कार्य कर रहे विभागों की नीतियों को प्रभावित कर उनकी दिशा परिवर्तित कर सकता हो। हमें अलग-अलग विभागीय-क्षेत्रीय मानसिकता को तोड़ने वाले समग्रता की सोच के व्यवहारिक अनुपालन के लिए एक राष्ट्रीय एकीकरण विभाग की आवश्यकता है। यह मात्र ‘भारतमाता की जय’ बोलने वाला विभाग न होगा, बल्कि चिंता करेगा कि राजकीय नीतियों, राष्ट्रीय संसाधनों व विकास की शक्तियों का उपयोग किस प्रकार राष्ट्रीय सशक्तीकरण में किया जाए। अर्थात कहां और किन क्षेत्रों में राष्ट्रीय नीतिगत दखल आवश्यक है। राष्ट्रीय एकीकरण की परवाह वैसे ही की जानी है जैसे पुराने दिनों की समुद्री यात्रओं में सरदार और नाविक दिन रात लगते थे कि जहाज की कहीं कोई कील तो नहीं कमजोर है, कोई पटरा तो नहीं खिसक रहा है। इसी प्रकार पूर्व सैनिकों का एक बड़ा तबका इस देश में है। इनकी चिंता का काम मुख्यतया राज्यों के हवाले है। राज्यों की राजनीतिक गहमागहमी में पूर्व सैनिक बिरादरी की आवाज कमजोर हो जाती है। पूर्व सैनिक वैसे भी जिंदाबाद मुर्दाबाद, चक्का जाम वाले लोग नहीं हैं। देखा जाए तो यह देश का सबसे सक्षम व प्रशिक्षित वर्ग है, लेकिन इनकी सेवाओं का समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा है व क्षमताएं बेकार जा रही हैं। कारपोरेट जगत ने सैन्य अधिकारी वर्ग का महत्व तो पहचाना है, लेकिन सरकारें इस ‘टैलेंट पूल’ का उपयोग नहीं करतीं। बड़ी संख्या में नान कमीशंड अधिकारी व सैनिकों को भी रोजगार के अवसर नहीं उपलब्ध हो पाए हैं। सेना से अच्छे ड्राइवर, वायरलेस आपरेटर, सुरक्षा सैनिक और कहां होंगे। बिहार सरकार ने कांट्रैक्ट पर पुलिस में पूर्व सैनिकों की सेवाएं ली हैं। उसका अच्छा परिणाम सामने आया है। पैरामिलिटरी बलों में पूर्व सैनिकों को अवसर क्यों नहीं दिया जाता, समझ से परे है। सिविल डिफेंस, होमगार्डस संभावनाओं के क्षेत्र हैं। स्थानीय निकायों के संचालन में पूर्व सैनिकों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। पूर्व सैनिकों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक मंत्रलय की आवश्यकता है, जो पूर्व सैनिकों के साथ-साथ सेवारत सैनिकों की स्थानीय समस्याओं और सैन्य, पैरामिलिटरी सेवाओं के रिक्रूटमेंट संबंधी नीतियों पर भी मार्गदर्शन दे। भिन्न-भिन्न राज्यों की भिन्न-भिन्न नीतियां इस प्रकार एक ग्रिड पर आ जाएंगी। अगला बिंदु राष्ट्रीय हित एवं नीतिगत स्थिरता को लेकर है। इस उद्देश्य से हमारे देश में संस्थागत सहयोग का अभाव है। आर्थिक नीतियों के लिए तो ‘योजना आयोग’ है, लेकिन विदेश, रक्षा, आंतरिक सुरक्षा संबंधी नीतियों का नियमन प्राय: विभागीय स्तर पर ही होता है। अत: इस संबंध में दीर्घकालीन नीति निर्धारण के लिए ‘पॉलिसी प्लानिंग कमीशन’ जैसे किसी उच्चस्तरीय थिंक टैंक की आवश्यकता होगी। नीतिगत निरंतरता को बनाए रखने व उसे दिशा देने के लिए इस प्रकार का नीति नियामक आयोग एक आवश्यकता है। कमजोर और निर्भर सरकारों के लिए राष्ट्रीय सशक्तीकरण की सोच भी संभव नहीं है। सरकारें कभी मजबूत आएंगी तो कभी कमजोर। एक ऐसी सशक्त बिरादरी बने जो विपरीत परिस्थितियों में भी राष्ट्रीय हितों को निगाह से ओझल न होने दे। सक्षम सरकार का यह दौर राष्ट्रीय लक्ष्यों की दीर्घकालीन योजना के लिए आदर्श समय है। 


(लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं)

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