Thursday, September 11, 2014

अंधकार के द्वीप


केन्द्रपाड़ा पहुँचने के बाद पता लगा कि वह मंदिर अभी 34 किमी0 दूर केरड़ागढ़ गाँव में है। केरड़ागढ़ का रास्ता पहले तो कस्बाई सड़क का है जो आगे चलकर गाँव की सड़क फिर बंधे की पटान में तब्दील हो जाती है। बाँई ओर ब्राहमणी नदी का चैड़ा पाट है। आगे चलने पर दाहिनी ओर हँसुआ नदी का भी उतना ही चैड़ा पाट दिखता है, इक्का दुक्का नाँवे, मछली के जाल डाले मछुआरे। रास्ते में सोचता रहा कि आखिर कैसे उस गाँव में इतनी दकियानूस मानसिकता बनी हुई है। दलितों के मंदिर प्रवेश पर विवाद तो गुजरे जमाने की बात है। एक साल का अरसा हो गया होगा जब अखबारों में आया था कि केन्द्रपाड़ा में दलित समाज के सदस्यों को मंदिर प्रवेश से रोका गया है। वह दीवार कौन सी है जिसमें बने नौ छेदों से ही दलितों को दर्शन की अनुमति रही है। कुछ दिन बाद पता चला कि समस्या का तात्कालिक समाधान हो गया है और दलित समाज के लिये दर्शन की अलग से व्यवस्था करा दी गई है। अलग से दर्शन का मतलब यह कि सामाजिक विभेद का समाधान नहीं हुआ। यह भी छपा कि उच्च न्यायालय के निर्णय के बावजूद दर्शन नहीं हो पा रहा है। अखबार इसके बाद चुप हो गये। जाहिर है रोज ब रोज बढ़ते समाचारों की भीड़ में यह खबर कमजोर होकर हाशिये से बाहर हो गई। लेकिन सवाल बना रहा। 
फकत इस सवाल के जवाब की तलाश में हम भुवनेश्वर से केन्द्रपाड़ा और फिर वहाँ से केरड़ागढ़ के लिये बंधे पर बनी इस सड़क पर हम हिचकोले खाते चले जा रहे थे। राजनगर एक छोटी सी कस्बाई मार्केट है यहाँ से 4 किमी और चलने के बाद केरड़ागढ़ गाँव दिखने लगता है। बंधे की सड़क के दोनों ओर नारियल के वृक्षों की पृष्ठभूमि में लकड़ी के खम्भों पर फूस के घर, घरों के बाहर न जाने किस नस्ल के बड़ी सीघों वाले बैल बंधे थे। साइकिलों पर स्कूल जाती लड़कियाँ गाँव को जितना सोचा गया उतना पिछड़े न होने का आभास दे रही थी। 
विवाद वैसे तो सदियों पुराना था। दलित समाज का मंदिर प्रवेश विवाद कोई आज का नया मुद्दा नहीं है। उड़ीसा के केन्द्रपाड़ा में यह करीब तीन साल पहले वर्ष 2005 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन जिंदा हुआ। दलित बस्ती के कुछ नये पढ़े-लिखे लड़के-लड़कियाँ जिनकी संख्या 4-5 थी, नौ छेदों वाली दीवार से दर्शन के बजाय दैवी दासत्व के बन्धन को तोड़ते हुये सिंह द्वार से मंदिर में प्रवेश कर गये। उस क्षेत्र में यह अनहोनी घटना थी। मंदिर अशुद्ध करने के कारण लगाया गया जुर्माना देने से उन्होंने इन्कार कर दिया। जैसा कि राज किशोर मुदिली ने बाद में बताया कि दलित समाज ने विरोध में सत्याग्रह का मन बनाया। उच्च न्यायालय ने मंदिर प्रवेश के अधिकार की ताईद की और प्रशासन ने दिनंाक 14.10.2007 को मंदिर प्रवेश की तिथि 16.10.2007 के लिये नियत की। पुजारियों द्वारा विरोधस्वरूप पूजा अर्चना बंद कर दी गई और नियत तिथि पर निकटवर्ती ग्रामों से लगभग पांच हजार लोगों ने आकर मंदिर पर घेरा डाल दिया। दलितों के मंदिर प्रवेश और ठाकुर जी के दर्शन की तैयारियाँ धरी की धरी रह गईं। पूजा का सामान, फूल मालायें, ढोल नगाड़े बेकार हो गये। अफवाहें यहाँ तक थी कि दलित बस्ती फूंक दी जायेगी लेकिन स्थानीय प्रशासन ने विवेक से काम लिया। वह दिन एक मुक्ति दिवस की तरह दलितों की जिंदगी बदल सकता था। वे उस हीनभावना से मुक्त हो जाते जिसके अहसास ने न जाने कितनी पीढि़यों से उन्हें सामाजिक विकलांग बना दिया था। मंदिर का घेरा डाले लोगों को, इन साठ वर्षों की आजादी में किसी ने नहीं बताया कि तुम सब एक ही समुदाय, एक सभ्यता के लोग हो। वह सामाजिक आन्दोलन जिसे गांधी, अम्बेडकर के बाद बदस्तूर चलते रहना था, अब उनके बाद उसका दूर-दूर तक कोई वारिस नहीं था। 
गाँव के तालाब को पार कर आगे ग्राम के समर्थ, सवर्ण जैसे लोगों की बस्तियाँ हैं। इनके मकानों का काम खत्म होने के बाद सफेद चूने से पुते हुये मंदिर के दर्शन होते हैं। गाँव के लिहाज से यह बड़ा मंदिर है, बाउण्ड्रीवाल से घिरा। किसी सरकारी सड़क योजना के द्वारा मंदिर के सामने और इससे आगे की सडक चैड़ी कर स्थान को भव्यता प्रदान की गई है। हमारी कार मंदिर के सामने रूकी। बाहर से बंद फाटक में ताला लगा था। मंदिर के सामने खड़े एक धोती पहने वृद्ध से पुजारी ने हमारे साथ आये शिक्षा विभाग के कर्मचारी को स्थानीय उडि़या में बताया कि मंदिर बंद हो चुका है। 12.30 पर बंद हो जाता है। फिर 2.30 पर खुलेगा। निराशा हुई कि बड़ा लंबा इंतजार करना पड़ेगा। घड़ी देखी तो 12.20 ही हुये थे। पुजारीगण सशंकित हो रहे थे। न जाने क्या सोचकर दर्शन के लिये मुख्यद्वार खोल दिया गया। हमारे इंतजार में कुछ स्थानीय ग्रामवासी भी थे। वे भी साथ आ गये। फिर पुजारियों से शिक्षा अधिकारी की बातचीत के बाद और मोबाइल पर कदाचित मंदिर प्रबंधक से बात करने के बाद हमारे मंदिर प्रवेश की संभावना बनी। मंदिर के मुख्य प्रवेश पर ही तीन पाइप लगाकर प्रवेश रोक दिया गया है। पुजारियों ने बताया विवाद के बाद से ही जिला प्रशासन की सहमति से पाइप लगा दिये गये हैं। अब चाहे सवर्ण हो या दलित, सबका प्रवेश रोक दिया गया है। दर्शन बाहर से ही होता है। बिजली की कटौती की वजह से मंदिर के गर्भगृह में अंधकार था। जगन्नाथ जी की मूर्ति दृष्टिगत नहीं हो रही थी। एक अपेक्षाकृत नवयुवक पुजारी जो दास ब्राह्मण था कुछ हिंदी बोल व समझ रहा था। पूँछे जाने पर कि आखिर विवाद क्या था, उसने बताया कि ये दलित लोग मंदिर में प्रवेश करना चाहते थे। उनके प्रवेश की कभी परंपरा नहीं थी इसलिये रोका गया। इसी कारण विवाद हुआ। दोनों पक्ष के लोगों में विवाद बढ़ने पर मंदिर में ताला डाल दिया गया। जिला प्रशासन, पुलिस आदि के सहयोग से फिलहाल यह बैरियर लगाकर प्रवेश बंद कर दिया गया है। अब बैरियर के बाहर से ही दर्शन कर सकते हैं। अंदर कोई प्रवेश नहीं करेगा। पहले क्या था ? पूँछा। पहले सवर्ण समाज के लोग मंदिर में स्तंभ तक अंदर आते थे। दलित वर्ग बाहर से दीवार में बने नौ छेदों से ही दर्शन कर सकता था। वह दीवार जो अपमान का प्रतीक थी, अब हटा दी गयी है। लेकिन उनका प्रवेश हमेशा से वर्जित था। मैने पूँछा कि अंदर आने देने में परेशानी है। जवाब था कि इनके प्रवेश की परंपरा ही नहीं रही है। परंपरा है इसलिये हम इसे तोड़ नहीं सकते। अन्य पुजारी मूकभाव से सुन समझ रहे थे। भाषा एक बड़ी मजबूरी थी। दाहिनी ओर का लोहे का गेट खोला गया। हम लोग स्थानीय ग्रामवासियों के साथ मंदिर प्रांगण में आ गये। नवयुवक पुजारी हमें मंदिर के बगल के एक रास्ते से मंदिर के भवन के अंदर ले आया। आगे आने पर स्तंभ के बाद गर्भगृह था। अंधकार में वहाँ कुछ दिख नहीं रहा था। कैमरे के फ्लैश की चमक में अपने बड़े विस्फरित नेत्रों से कृपा की वर्षा करती भगवान जगन्नाथ की मूर्ति दिखी। गर्भगृह के सम्मुख दण्डवत् प्रणाम के बाद हम लोग बाहर आये और पुजारियों के साथ मंदिर की एक परंपरागत परिक्रमा की गई। बैठने की गुंजाइश तलाशते हुये हमलोग मंदिर परिसर में दाहिने हाथ पर बने एक दालान के बरामदे में आ गये। बरामदे में एक तख्त और दो लकड़ी की कुर्सियों पर सारा कारवाँ जम गया। आर0सी0प्रधान दुभाषिये का काम कर रहा था। वह ओडिया है। बातें प्रारम्भ हुई। नाम, आपका नाम और आपका ? क्या जाति है ? खोण्डायत, खोण्डायत मतलब ? तलवार लेकर चलने वाला। क्षत्रिय ? नहीं क्षत्रिय से नीचे। क्षत्रिय भी है कोई। क्षत्रिय कोई नहीं है। गाँव में ब्राह्मण है करीब 5 प्रतिशत, वैश्य समाज के भी कुछ लोग हैं। बाकी ज्यादातर, खाण्डायत, सॅाई वगैरह हैं। वे सब मुख्यतः कृषि कार्य करते हैं और आजकल पिछड़ी जाति में आते हैं। ग्राम में ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय क्यों नहीं हैं ? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था। आखिर हिंदू धर्म चतुवर्ण धर्म कहा गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ब्राह्मण है, कुछ वैश्य हैं, शेष बचे शूद्र हैं। क्षत्रिय कहाँ गये ? शूद्र लगभग 20 प्रतिशत हैं। अलग बस्तियों में रहते हैं। 
बात मंदिर प्रवेश विवाद पर आकर ठहरती है। विवाद है क्या आखिर ? वो दलित लोग अपने जुलूस के साथ बाजा बजाते हुये एक शोभायात्रा के रूप में मंदिर में प्रवेश चाह रहे थे। उन्हें मना किया गया। वे कभी अंदर नहीं आये हैं। उनके पूर्वज भी कभी मंदिर में नहीं आये है। मैने पूँछा, अगर वे जुलूस में नहीं बल्कि अगर व्यक्तिगत रूप से आये तो प्रवेश हो सकता है ? नहीं, सिर्फ बाहर से ही दर्शन, प्रणाम कर सकते हैं। पुराने लोग कोई समस्या नहीं करते थे। अभी भी नहीं करते हैं। नये लोग ही आंदोलन चला रहे हैं। उनके प्रवेश की कोई परंपरा नहीं रही है। इससे परंपरा टूटती है। यह परंपरा के विरूद्ध है। सवाल बना, लेकिन वे भी तो हिंदू समाज के ही हैं, फिर क्यों प्रवेश नहीं है ? उन्हें कोई जवाब नहीं सूझा तो कहा कि वे क्यों यहीं प्रवेश करना चाहते हैं ? जब कहीं भी किसी भी मंदिर में प्रवेश नहीं है तो यही के जगन्नाथ मंदिर में क्यों वे समस्या पैदा कर रहे हैं ? क्या ? क्या मतलब ? मेरा तो जैसे सर घूम गया। इतनी आसानी से कह दी गई बात जहर बुझे तीर के समान लगी। नहीं ....! यह कैसे ....!
एक ने कहा, अगर वे यहाँ प्रवेश कर लेते तो अन्य मंदिरों में भी प्रवेश करने का प्रयास हर जगह होने लगता। बड़ी अव्यवस्था हो जाती। यहाँ प्रवेश का प्रयास रोक कर सब जगह की आशंका समाप्त कर दी गई है। पूरी उड़ीसा में समस्या हो जाती। कहीं भी प्रवेश नहीं! मैने प्रतिवाद किया कि पुरी के जगन्नाथ मंदिर में तो प्रवेश है। जवाब मिला जाति बताकर प्रवेश नहीं है। पण्डों को जब मंदिर में किसी के हरिजन होने का पता चल जाता है तो उसे मारपीट कर भगाया जाता है। विचारों की उद्धिग्नता कुछ बोलने सोचने नहीं दे रही थी। ऐसा भी संभव है! आजादी के 60 साल सिर्फ लफ्फाजियों में बीत गये। कहीं प्रवेश नहीं। तो 60 साल की आजादी, लोकतंत्र, स्वनामधन्य महान नेताओं के बावजूद, अनगिनत चुनावों के बावजूद, अछूतों के उद्धार के न जाने कितने नारों, संकल्पों के बावजूद हम वहीं के वहीं खड़े हैं। लगा कि शिराये फट जायेंगी। सारे आंदोलनों, सारे गांधियों, अम्बेडकरों के बाद भी कहीं कुछ नहीं। 
हमारा अचानक चुप हो जाना गाँव वालों को अस्वाभाविक जरूर लगा होगा। मैं जज्बातों के उबाल और अकर्मण्यता से पैदा गहन निराशा में अपने को संयत करने के प्रयास में था। ऐसा लगा कि हम लोग जैसे अलग-अलग ग्रहों के वासी हैं। हमारी सोच एक हो ही नहीं सकती। आगे और बात करने सवाल पूंछने की जैसे इच्छा समाप्त हो गई। अब तो किसी बात का कोई अर्थ नहीं था। लेकिन ये ग्रामवासी भी कोई घाघ, चालू, दादा या धूर्त किस्म के लोग नहीं हैं। सीधे-साधे लोग ही हैं। इनके लिये तो यह बड़ा स्वाभाविक सा स्वीकार है असलियत का। जिसे हम समाज की सड़ांध कहते हैं वह इनके यहाँ सड़ांध नहीं सामान्य कार्य व्यवहार जैसा है। अगर ये घाघ, धूर्त होते और यह उनका जवाब होता तो इतनी बेचैनी न होती और ऐसे में इनकी नकारात्मक, दुष्ट मानसिकता के मत्थे इस समस्या को देकर एक आसान सी थ्योरी बन जाती। लेकिन ये वैसे नहीं है। अगर ये दलितों के मंदिर प्रवेश का विरोध अपने अन्तर्मन से, संस्कारों की गहराई से अत्यंत स्वाभाविक रूप से कर रहे हैं तो..... तो..... हम कहाँ जायेंगे ? अब तो हम गुलाम भी नहीं हैं। आजादी के बाद के इस 60 वर्षों के अंतराल को हमने किसी तरह गँवाया है! मैं तो यह सोच कर आया था कि केरड़ागढ़ शायद देश के इक्का-दुक्का ऐसे बचे खुचे ऐसे स्थलों में से होगा जहाँ दलितों का मंदिर प्रवेश अभी भी समस्या है। लेकिन केरड़ागढ़ तो टेस्ट केस जैसा साबित हुआ है। अगर यहाँ दलित मंदिर प्रवेश में सफल हो जाते तो और जगह भी प्रवेश का प्रयास करते। यह इस उड़ीसा के दलितों का अंतिम नहीं बल्कि प्रथम प्रयास था। लोकतंत्र और आजादी के 60 वर्षों बाद वे अब प्रथम प्रयास का साहस जुटा सके हैं। बाद में एक अधिकारी ने बताया भी कि इस इलाके में दलित समाज मंदिर प्रवेश की बात सोच भी नहीं सकता। 
फिर भी दलित समाज मंदिर में आना चाहता है। सवाल जेहन में उठा कि आखिर वे कौन लोग हैं जो मंदिर प्रवेश अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं ? वे गाँव के ही हैं, बताया गया। रवीन्द्र सेठी और राज किशोर मुदिली, कुछ और लोग भी हैं। वे कहाँ मिलेंगे, किसी को पता नहीं था शायद उन्होंने बताना नहीं चाहा। वे हरिजन बस्ती में होंगे। वहाँ कोई जाता वाता नहीं है। पुजारी से पूँछा कि दलित समाज के लोग अब आते हैं ? बस कभी कोई आ गया तो बाहर से ही प्रणाम कर चला जाता है। इस सफलता पर कुछ विजयी होने सा भाव भी दिखा। रोक दिये जाने के बाद अब वे प्रवेश की हिम्मत नहीं करेंगे। अब आगे इस सिलसिले में कुछ कहना सुनना बेमानी, बिना मतलब की बात थी। हम लोग जैसे अलग-अलग समय काल के लोग थे। उनके विरूद्ध क्रोध की भी गुंजाइश नहीं थी। हमारे बीच में जैसे कि एक पहाड़ सा खड़ा हो गया था। अब चलने का वक्त था। अगर अभी नहीं चले तो बाकी जिंदगी महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास के समान यहीं रहना भी पड़ सकता है। केरड़ागढ़ का एहसान है मुझपर। यहां पहुँचकर समझ में आया कि कोई पेरियार, कोई ज्योतिबा फुले क्यों बनता है कोई अम्बेडकर क्यों बनता है ? काम सिर्फ एक मंदिर का नहीं है, बल्कि काम तो पूरी मानसिकता के बदलने का है जिसके लिये पीढि़याँ दरकार हैं। 
चलते-चलते आखिरी सवाल कि अगर ऐसे ही रहा तो क्यों ये हिंदू कहे जायेंगे। अगर धर्म में स्वीकार न किया जायेगा तो धर्म परिवर्तन कर ईसाई अथवा मुसलमान हो जायेंगे। एक ग्रामवासी ने बताया कि जब लोग यह मामला राजा साहब, राज परिवार के वर्तमान वंशज, जो मंदिर के प्रमुख ट्रस्टी भी हैं, के पास ले गये तो उन्होंने कहा भी कि हमारे लिये क्यों समस्या पैदा करते हो। जब कहीं प्रवेश नहीं है तो यहीं केरड़ागढ़ में ही क्यों ? उन्होंने आगे कहा कि चाहे तुम ईसाई हो जाओ, मुसलमान हो जाओ, हमसे कोई मतलब नहीं। लेकिन यहाँ इस मंदिर में मत आओ। अगर तुम लोगों में हिम्मत हो तो एक बस ले लो। किराया मैं दे दूँगा। बस के सामने बैनर लगाओ कि तुम केरडागढ़ दलित विकास मंच के लोग हो और पुरी जगन्नाथ जी के दर्शन करने जा रहे हो। यह घोषणा कर के अगर पुरी जगन्नाथ जी में जाकर दर्शन करने में सफल हो जाते हो तो यहाँ भी आ जाओ हमें कोई परेशानी नहीं है। लेकिन सबसे पहले यहीं पर क्यों ? 
आज के लगभग 78 वर्ष पूर्व इसी अप्रैल के महीने में नासिक के कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन का नेतृत्व बाबा साहब ने किया था। मंदिरों में व्यक्ति के प्रवेश और समाज के प्रवेश में बड़ा फर्क होता है। उस समय तक अम्बेडकर को उदारवादी सहिष्णु हिन्दुओं पर भरोसा था। 02 अप्रैल 1930 को मंदिर प्रवेश आंदोलन के दौरान उन्होंने कहा, ‘‘मैं भगवद्गीता के अलावा किसी भी पुस्तक को आदरणीय या प्रमाणिक नहीं मानता, परन्तु मैं अपने को सनातनी हिन्दू मानता हूँ।‘‘ लेकिन सवर्णों के रूख ने उनके भरोसे को तोड़ दिया। उन्हीं बाबा साहब ने सवर्णों की निष्ठुरता से पीडि़त होकर 1935 में येवला जनसभा में कहा कि मैं हिन्दू नहीं मरूंगा। आज 78 वर्षों बाद इतिहास की सीढि़यों पर वहीं के वही खड़े रह गये सनातन हिन्दू समाज को अभिशाप से मुक्ति का एक और अवसर मिला है। राज किशोर मुदिली कोई नेता नहीं है, फिर भी अपने समाज के लिये उसने वह करने का साहस किया है, जो कभी बाबा साहब ने किया था। बाबा साहब के सहारे से खड़े होने के उनके प्रयास में उसके समाज को सहयोग और शक्ति की जरूरत है। 
किसी हिंदू लड़की का मुस्लिम लड़के से विवाह होने पर वह एक ही दिन में धर्म ग्रहण कर मुस्लिम समुदाय की सदस्या हो जाती है। किसी मुस्लिम धर्मगुरू को आपत्ति करते नहीं देखा गया। पिछले चार सौ वर्षों में ईसाई मिशनरियों के प्रभाव से बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन हुआ है। जबकि हमारा धर्म अपने ही भाईयों को शूद्र फिर दलित बनाता है। वापसी का रास्ता बन्द कर धर्म से बहिष्कृत कर देता है। हमारी धर्म परंपरायें हिंदुओं का हिंदू बना रहना रोक दे रहीं हैं। इस्लाम और ईसाइयत के बरक्स हमारे आत्महन्ता धर्म का जवाब केरडागढ़ है, जहां हिन्दुओं के साथ-साथ आजादी, लोकतंत्र मानवता आदि आदि की भी औकात दिखती है। हमारे देवता अपने बड़े बड़े नेत्रों से न जाने कितने वर्षों से इन दृष्यों के साक्षी रहे हैं। 
आगे और कहने सुनने को कुछ बचा भी नहीं था। वापसी में गाँव से बाहर आने से पहले दलित बस्ती जैसे लग रहे एक मजरे में रूक कर पता करना चाहा लेकिन रवीन्द्र सेठी और राज किशोर मुदिली के बारे में कि वे कहाॅ है, कोई बता नहीं पाया। कुछ लोगों ने सड़क से दूर दलित समाज की बस्तियों की ओर इशारा किया। उनसे सम्पर्क का कोई रास्ता नहीं निकल सका। उसी बस्ती के एक बच्चे को एक चिट पर टेलीफोन नम्बर लिखकर इशारों से समझाने की कोशिश की, कि उन दोनों में से अगर कोई मिले तो उसे दे देना। फिर भरे मन से हम लोग वापसी की राह पर चल पड़े। बंधे की सड़क के बाद केन्द्रपाड़ा से कटक शानदार राष्ट्रीय राजमार्ग पर वापस आने के बाद सड़क के दोनों ओर निर्मित हो रहे कालेज, बाजार, उद्योग और विकास के सारे तामझाम खोखले नजर आ रहे थे। उड़ीसा विकास के नारों में अब कोई दम नहीं था। हमारे लिये एक प्रगतिशील उड़ीसा का स्वप्न ध्वस्त हो चुका था। 
स्थानीय ग्राम वासियों ने बताया था कि राजा साहब वहीं भुवनेश्वर में ही रहते हैं। राजा साहब से मिलने हम लोग उनके आवास ‘‘कनिका हाउस‘‘ पहुँचे। कनिका पुरानी बड़ी जमींदारी रही है और उड़ीसा के इतिहास में मयूरभंज के भंजदेवों का सम्मानित स्थान रहा है। राजा साहब केरडागढ़ के अलावा इस जैसे 51 और भी मंदिरों के हेरिटेज ट्रस्ट और प्रबंधक ट्रस्टी हैं। कनिका हाउस का कर्मचारी हमें कई कमरों से होते हुये अन्दर राजा साहब के बेडरूम में लिये गया। राजा साहब पलंग पर बैठे सामने मेज पर रखे बहुत से जरूरी कागजातों, डायरियों वगैरह के बीच कोई पुस्तक उलट-पुलट रहे थे। अवस्था लगभग 75 वर्ष स्वस्थ एवं भव्य शरीर, आश्चर्य से कहा से कि आप लखनऊ से आकर कहां वहां केरडागढ़ तक चले गये ! ऐसा क्या था ? मैने बताया कि अखबारों में पढ़ा कि ऐसा कोई मामला हुआ था। भुवनेश्वर आया तो सोंचा कि वहां भी चले चलें। 
बात शुरू हुई। उन्होंने कहा कि हमारे पास कोई रास्ता नहीं था। ये दलित लोग जबरदस्ती करना चाह रहे हैं। जब कभी प्रवेश नहीं हुआ तो आज ही क्यों ? लेकिन मंदिर तो सबके लिये बराबर होना चाहिये। गीता में भी कृष्ण भगवान ने जब चार वर्णों की बात कही तो वर्णों को हम कैसे समाप्त कर देंगे। साथ ही यह भी कहा कि लेकिन गीता ने किसी का मंदिर प्रवेश नहीं रोका है। मैने कहा कि फिर प्रवेश पर रोक क्यों ? मंदिर उनके लिये है जो हिंदू धर्म का पालन करते हैं। ये लोग कहां धर्म का पालन कर रहे हैं ? लेकिन धर्म के पालन के लिये ही तो मंदिर प्रवेश चाहते हैं ? परंपरा नहीं है उनका जवाब था। हमारे पुजारी वर्ग ने भी कहा कि अगर ये प्रवेश करेंगे तो पूजा अर्चना बन्द कर दी जायेगी। मैं 51 मंदिरों का ट्रस्टी हूँ अगर सारे मंदिरों में पूजा अर्चना बन्द हो गयी ताला लग गया तो क्या स्थिति होगी ? यह एक व्यवहारिक बात थी जिसके मुताबिक समस्या के समाधान की चाबी उड़ीसा के ब्राह्मण समुदाय के हाथ में है। राजा साहब ने भी ग्राम वासियों द्वारा बताई वही बात कही कि अगर पुरी जगन्नाथ मंदिर में अपने समाज के सहित घोषणा करके दर्शन के लिये प्रवेश पा जाओ तो फिर मैं भी प्रवेश की अनुमति दे दूँगा। इन बातों से हमें पुरी के जगन्नाथ मंदिर में दलित प्रवेश की स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी। दलित, दलित होना छिपाकर प्रवेश करें तो अलग बात है। आगे बताया कि जगन्नाथ जी रथयात्रा ही इसलिये होती है कि जिन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता है वे दर्शन कर सकें। इसी उद्देश्य से जगन्नाथ जी बाहर आते हैं। उड़ीसा का दलित समाज रथयात्रा के रस्से को ही हाथ लगा कर अपने को धन्य मानता है। बात फिर वर्ण व्यवस्था उड़ीसा में क्षत्रिय वर्ण की अनुपस्थिति की ओर चली गयी। 
बहरहाल वार्ता का उद्देश्य पूर्ण हो चुका था। चलते वक्त उन्होंने ओडि़या भाषा में अपने पारिवारिक इतिहास की एक पुस्तक भेंट की। उड़ीसा के मंदिरों, केरडागढ़ आदि के अलावा पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भी दलित प्रवेश अभी भी विवाद का मुद्दा है और दलित समाज के सामान्य प्रवेश की स्थितियां अभी नहीं बन सकी हैं। यह अलग बात है कि विधिक बाध्यताओं के कारण यह बात स्वीकार नहीं की जाती है। पण्डों के द्वारा चलाये जा रहे हमारे धर्म में विवेकपूर्ण धार्मिक नेतृत्व के अभाव के कारण बिखराव को रोक पाना सम्भव नहीं दिख रहा है। वक्रीय ग्रहों के समान इतिहास की प्रायः एक पश्चगामी गति भी होती है। सांस्कृतिक वैभव के बावजूद उड़ीसा का सामाजिक इतिहास पीछे की ओर गतिमान होकर एक अंधेरे का क्षेत्र बनाये बैठा है। मंदिरों की आरती के प्रकाश और नगाड़ों के नाद में, प्रसाद और भभूत के आडंबर में हम स्वार्थी पुजारियों द्वारा बनाये गये अंधकार के द्वीपों को समाप्त करने के बजाय उन्हें बचाये हुये हैं। दुर्भाग्य है कि हमारे मन्दिर जिन्हें जागरण के केन्द्र होना चाहिये वे ही आज अंधकार के द्वीप हैं। 

आर0 विक्रम सिंह
(पूर्व सैन्य अधिकारी)

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