लोकतंत्र के मौजूदा स्वरूप में राष्ट्रीय
नेतृत्व के विकास की संभावनाएं ही नहीं देख रहे हैं आर. विक्रम सिंह
20 नवम्बर 2013
कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ राज्य व्यवस्था संचालन अर्थात गवर्नेस का
ग्रंथ है। कौटिल्य एक स्थिर, सशक्त, विकसित होते हुए राज्य के मंत्री हैं। वह ‘आदर्श’ राज्य व्यवस्था को
गढ़ते हैं। ‘अर्थशास्त्र’ का प्राचीन भारतीय राज्य संचालन में वही महत्व बना
जो सामाजिक व्यवस्था के लिए ‘मनुस्मृति’ का था। कौटिल्य के प्रशासनिक तंत्र ने राज्य के
संचालन की ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित की जो स्वत: संचालित रहे और जिसमें युद्धों के
कारण बाधा न पड़ें। यही प्रशासनिक, आर्थिक सशक्तीकरण हमारे देश की शक्ति का आधार बना।
भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की यह आधारशिला आज भी हमें मार्गदर्शन देने में सक्षम
है। प्राचीन भारत और आज की व्यवस्था में एक बड़ा अंतर है। कल हमें पता था कि राजा
कौन है, कौन मंत्री है, उनकी सोच क्या है। आज हमें पता ही नहीं कि हमारा
राजा अर्थात प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री कौन होने वाला है। हमने देखा है कि
लोकतंत्र के इस भारतीय संस्करण में कितनी ही बार ऐसे लोग प्रधानमंत्री बने, जिन्हें जनता ने
बतौर प्रधानमंत्री वोट ही नहीं दिया था। हमारे संविधान में व्यवस्था है कि जनता
द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि बहुमत से अपना नेता चुनेंगे। वह नेता अपने मंत्रिमंडल
का गठन करेगा। अब जब हमने प्रधानमंत्री का उम्मीदवार पहले ही घोषित कर रखा है तो
उस संवैधानिक व्यवस्था का क्या हश्र होगा जो कहती है कि चुने हुए प्रतिनिधि अपना
नेता चुनेंगे। अब विधायकों, सांसदों को कौन चुनता है? आप कहेंगे जनता, लेकिन पार्टी का
नेता तो टिकट देकर खुद संभावित प्रतिनिधि चुन रहा है। वे उम्मीदवार निर्वाचन के
बाद उन्हें अपना नेता चुनेंगे ही। इस पार्टी सिस्टम में प्रतिनिधियों के पास कोई
अन्य विकल्प नहीं है। इस तरह पार्टी के नेता ने अपने वोटर प्रतिनिधि स्वयं ही चुन
लिए। अब संविधान का यह प्रावधान है कि नव निर्वाचित प्रतिनिधि अपना नेता चुनेंगे, अर्थहीन सा हो जाता
है। संविधान राजनीतिक दलों के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता। जब गांधीजी ने ही तय कर
दिया था कि नेहरू प्रधानमंत्री होंगे तो निर्वाचित प्रतिनिधियों के मंतव्य का अर्थ
ही क्या रह जाता है। इसका परिणाम यह हुआ कि व्यवहारिक रूप से हम लोकतांत्रिक
व्यक्तिवाद की ओर बढ़ चले। इस व्यक्तिवाद का परिवारवाद में बदलना भी स्वाभाविक था, ऐसा हुआ भी। हमारी
व्यवस्था की यह कमी हमें आजादी के दौर से उपजे राष्ट्रीय नेताओं के काल में महसूस
ही नहीं हुई। समस्या तब आती है जब उस दौर के नेताओं का समय समाप्त होता है और
दूसरी तथा तीसरी पीढ़ी के सामने नेतृत्व का संकट आता है। चूंकि राजनीतिक दलों के
अस्तित्व को संविधान ने स्वीकार नहीं किया है, इस कारण संविधान में दलों के संचालन, उनके आंतरिक
लोकतंत्र, नेता का चयन आदि व्यवस्थाएं देने का भी प्रश्न उत्पन्न नहीं
हुआ। शायद हमारे संविधान निर्माताओं से यहां बड़ी भूल हो गई। जब राजनीतिक दलों के
आधार पर ही चुनाव लड़े जाने थे तो लोकतंत्र के शैशवकाल में राजनीतिक दलों के गठन, उनकी व्यवस्था, लोकतांत्रिक आधार, कार्यकर्ताओं, महिलाओं, दलितों के प्रतिनिधित्व, क्षेत्रीयताओं का
नकार आदि बिंदुओं पर व्यवस्था देना आवश्यक था। यदि संविधान निर्माताओं ने ऐसा किया
होता तो राजनीतिक दलों में आज आंतरिक लोकतंत्र स्वत: सुनिश्चित हो गया होता। राजनीतिक
दल लोकतंत्र की आवश्यकता हैं। लोकतंत्र को सबल व समर्थ करने के लिए राजनीतिक दलों
को संवैधानिक दायरों में लाया जाना जरूरी होता जा रहा है। दुर्भाग्य से हमने
लोकतंत्र को राष्ट्रीय सशक्तीकरण का माध्यम बनाने के बजाय सत्ता हिस्सेदारी का
माध्यम मान लिया है। राजनीति के वर्तमान माहौल में अब ऐसा संविधान संशोधन लाया जा
सकना असंभव होने जैसा है। तो फिर रास्ता क्या है? क्या हमारा देश इसी तरह राजनीति की ढलान पर
चलता जाएगा। आज की राजनीति में सक्षम नेतृत्व के अभाव का यही कारण है। ययाति के
समान सत्ता भोग में अनंतकाल तक बने रहने की अभिलाषाओं ने योग्य व्यक्तियों के
राजनीति में प्रवेश का मार्ग बंद कर दिया है। सत्ताएं जन नेतृत्व, कर्मठता, संघर्ष का मार्ग
छोड़ राजसुख का माध्यम बन रही हैं। लोकतंत्र की 65 वर्ष की यात्र के
बाद ऐसा लगता है कि अपने यहां शायद लोकतंत्र की राष्ट्रपति प्रणाली उपयुक्त होती।
यदि राज्यपाल अथवा मुख्यमंत्रियों का चुनाव सीधे जनता के द्वारा होता तो कम से कम
उन्हें पांच वर्षो तक राज्य के विकास के लिए कार्य करने का अवसर तो मिलता। छोटे
राज्य होते। राष्ट्रपति का चुनाव सारे देश की जनता करती। जब राष्ट्रनेता की खोज की
जाएगी तभी तो राष्ट्रीय नेतृत्व की संभावना का विकास होगा। विभाजन के स्थान पर
संयोजन की, जोड़ने की राजनीति होती, राष्ट्रीय नेताओं में राष्ट्रीय मुद्दों की, सबको साथ लेकर चलने
की समझ होती। वर्तमान व्यवस्था में राष्ट्रीय नेतृत्व के विकास की संभावनाएं ही
नहीं हैं। जोड़-तोड़ की व्यवस्था के लिए दूसरे प्रकार की क्षमताएं चाहिए। राष्ट्र
को मार्गदर्शन देने वाले व्यक्तित्व इस जोड़-तोड़ की गठबंधनी राजनीति में विकसित
नहीं होंगे। बहुत से दलों की भागीदारी पर निर्भर गठबंधनों की सरकारें सक्षम
प्रधानमंत्रियों को भी असहाय कर देती हैं और उन्हें क्षेत्रीयताओं से ब्लैकमेल भी
होना पड़ता है। हमारी आवश्यकता है सक्षम नेतृत्व, राष्ट्रीय एकीकरण और विकास। 24 घंटे की बेतहाशा
राजनीति ने इस देश के संसाधनों का जितना अवव्यय किया है उतना शायद आज तक कोई
आक्रांता भी नहीं कर सका होगा। अपने राज्य तक सीमित दल जिनका गठन ही क्षेत्रीयता, भाषा के एजेंडे के
तहत हुआ है उनसे राष्ट्रीय सोच की अपेक्षा की भी जाए तो कैसे? जब तक जनता से सीधे
चुना हुआ प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति हमारे पास नहीं होगा, क्षेत्रीयताओं
द्वारा ब्लैकमेल होना हमारे देश की नियति बनी रहेगी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र
हजारों वर्षो तक प्रभावी रहा। हमारा संविधान अभी से ही भीषण दबाव में आ रहा है।
अलग-अलग वैचारिक खांचों में बैठा बुद्धिजीवी वर्ग भी इन बिंदुओं पर चर्चा तक के
लिए समय नहीं निकालता। वर्तमान व्यवस्था से लाभान्वित हो रही शक्तियां, जिनका हित कमजोर
केंद्र में ही निहित है, परिवर्तन की राह में बाधा बनकर खड़ी मिलेंगी।
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