Saturday, November 17, 2012

बहादुरी के पचास साल

( दैनिक जागरण के १७ नवंबर २०१२ के अंक में प्रकाशित )
नवंबर, 65 फील्ड रेजीमेंट का रेजिंग का महीना है। एक नवंबर, 1962 के दिन कर्नाटक के बेलगांव में 65 फील्ड रेजीमेंट खड़ी की गई। यह रेजीमेंट जाट जवानों की पहली आर्टिलरी यूनिट बनी। उस वक्त उत्तरी सीमाओं पर चीनी हमला चल रहा था और देश हार के सदमे में था। तोपखानों में जाटों का योगदान बहुत समय से रहा है। अस्तित्व में आने के बाद 1963 में इसे नेफा, अरुणाचल प्रदेश में भेजा गया। बहुत से स्थलों से गुजरते हुए इसी एक नवंबर को हमारी पलटन अमृतसर में अपने जीवन की गोल्डन जुबली मनाकर 50वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है।
युद्धकाल में जन्म लेने वाली 65 फील्ड रेजीमेंट को चीनी युद्ध में भाग लेने का अवसर ही नहींथा। वक्त आया 1971 बांग्लादेश युद्ध के रूप में। मार्च से दिसंबर तक मुक्तिवाहिनी के रूप में और फिर ‘अखौरा’ ऑपरेशन से 65 फील्ड ने अपनी आमद दर्ज की। 65 फील्ड रेजीमेंट उस समय अगरतला के पास लीचीबागान में थी। हमारे पास उन दिनों 75/24 माउंटेन तोपें थीं, जो 13 हिस्सों में आसानी से खुल जाती थीं। बांग्लादेश के नदियों, नालों से भरे इलाके में कितनी बार ये तोपें हमारे जाट जवानों ने खोल कर कंधों पर उठाईं। गन पोजीशनें खोदीं, तोपें जोड़ीं, दुश्मनों पर फायरिंग की, तोपें वापस खोलीं और उन्हें कंधों पर लाद फिर चल पड़े। जाट दिल, दिमाग और शरीर तीनों से मजबूत होता है। अपने जवानों से मैंने बांग्लादेश युद्ध के बहुतेरे किस्से सुने। अखौरा अगरतला, त्रिपुरा से लगा हुआ पूर्वी पाकिस्तान सीमा का एक कस्बा है। आगे ब्राव0161ानबड़िया और फिर मेघना। ढाका के रास्ते पर बढ़ने के लिए मेघना नदी पार करनी थी, इसलिए अखौरा पर कब्जा जरूरी था। अखौरा की लड़ाई में कैप्टन सुंदरम की शहादत हुई, हमारे तीन जवान मारे गए। मेजर उत्तम सिंह की दोनों कनपटियों से कानों को चीरते हुए गोलियां निकल गई थीं। वे युद्ध की कहानियां हम लोगों को बताने के लिए जीवित रहे। मेजर महिपाल सिंह भी घायल हो गए थे।
बांग्लादेश युद्ध के बहुत दिनों बाद मैं इसी यूनिट में सेकेंड लेफ्टिनेंट बना। मेरी ज्वॉइनिंग के वक्त यूनिट उड़ी, कश्मीर में थी। श्रीनगर ट्रांजिट कैंप से अलसुबह चली फौजी बस से मैं उड़ी पहुंचा। पहुंचते ही मुङो यूनिट के कैप्टन टोनियाट के सामने पेश किया गया। वह आगे भी हमारे लिए आतंक का पर्याय बने रहे। बर्फीले पहाड़ों और चीड़ के दरख्तों से ढकी, हाजीपीर पास को हसरत से देखती उड़ी की घाटी एक खूबसूरत जगह है। हमारी लोकेशन से होकर शोर मचाती ङोलम बहा करती थी। 1947-48 में कश्मीर पर कबायली पाकिस्तानी हमले के मार्ग में उड़ी पड़ता था, जो श्रीनगर तक आता था। उड़ी में मुजफ्फराबाद और पुंछ से हाजीपीर पास को पार कर आने वाले रास्ते मिला करते थे। अक्टूबर 1947 में भारतीय सेनाओं के आने के बाद परिदृश्य बदल गया और कबायलियों को वापस भागना पड़ा। भागते पाकिस्तानियों का पीछा करने के बजाय हमारी सेनाओं को यहीं रुकने के निर्देश दिए गए। संपूर्ण कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे से मुक्त कराने का सुनहरा मौका जाता रहा।
इस 50वीं सालगिरह जिसे फौजी भाषा में ‘रेजिंग डे’ कहा जाता है, के दिन उम्मीद के मुताबिक अमृतसर में 65 फील्ड के कैंपस में बहुत से रिटायर्ड फौजी आए। मुङो वहां होना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य कि मैं वहां नहीं था। 65 फील्ड के तीन अफसर जो मेजर जनरल रैंक तक पहुंचे, महिपाल सिंह, जनरल उपाधे और जनरल वाइके कपूर। जनरल कपूर यूनिट के चौथे कमांडिंग अफसर थे। आज 90 साल की उम्र में भी वैसे ही कड़क। यूनिटें युद्ध की इकाई ही नहीं जवानों-अफसरों के घर जैसी होती हैं। मुङो याद है कि हमारी यूनिट का एक रिटायर्ड जवान जिसे उसके लड़के ने घर से निकाल दिया था, पता करते-करते उड़ी में यूनिट तक आ पहुंचा और कई महीने यहीं रहा। जब मेजर ने गांव जाकर झगड़ा खत्म कराया तब कहीं वह वापस गया।
वे गिरती बर्फ के नीचे बंकरों, चीड़ के जंगलों और खुशबूदार देवदारों के साथ बीते बेलौस दिन थे। मैं हाजीपीर के सामने की चौकियों पर और फिर पाकिस्तानियों द्वारा काबिज समशाबाड़ी रेंज के सामने की पहाड़ियों पर भी रहा। उड़ी के बाद यूनिट रांची आई। इस यूनिट ने 71 के युद्ध में ऊंचाइयां और रांची में बुरा वक्त भी देखा है। मोर्चे से दूर शांतिकाल में सेनाओं का प्रबंधन आसान नहीं होता। बहुत परिपक्व नेतृत्व की आवश्यकता पड़ती है। आज गोल्डन जुबली के दिन कर्नल मारुति शुक्ला 65 फील्ड को कमांड कर रहे हैं।
बेलगांव के बाद 65 फील्ड बोमडिला अरुणाचल प्रदेश में रही। वहां से झांसी, तालबेट से अगरतला और फिर 71 ऑपरेशन में भागीदारी के बाद भूटान और वहां से लेखापानी के बाद हल्द्वानी। फिर वहां से उड़ी कश्मीर, जहां मैंने ज्वॉइन किया, फिर रांची से सिक्किम, फिर इलाहाबाद, अखनूर और फिर असम से होते हुए आजकल अमृतसर में मुकाम। यह 65 फील्ड रेजीमेंट की यात्रओं का इतिहास रहा है। 65 फील्ड को वह महत्व नहीं मिल सका जिस पर उसका हक था। पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश करने वाली पहली यूनिटों में इसका नाम है। हमारे जवानों ने बताया कि 65 फील्ड पूर्वी पाकिस्तान की सीमाओं में गोले दागने वाली पहली आर्टिलरी यूनिट थी और फिर ढाका में पाकिस्तानी ठिकानों पर गोले बरसाने वाली यही पहली पलटन भी बनी। ऐसा बहुत कम हुआ है कि तोपखाना पैदल सेनाओं के साथ-साथ बराबर चला हो। मेघना के पार उतरने के बाद हमारे जवान तोपों को कंधों पर लिए दुश्मन के इलाके में बेखौफ चलते रहे। तोपखानों के साथ भी अक्सर ऐसा होता है, लेकिन क्या फर्क पड़ता है? हम तो लड़ाई के दौर में पैदा हुए हैं, किन्हीं दूसरी बड़ी जंगों में फना भी हो जाएंगे। सिपाहियों की जात को अपनी मिट्टी का हिस्सा बन जाने से ज्यादा कोई पहचान की दरकार भी नहीं है।
(लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं)

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