Wednesday, August 15, 2012

नियति से मिलन का इंतज़ार





‘वर्षो पहले हमने नियति से मुलाकात तय की थी। अब समय आ गया है जब हम अपने वायदे निभाएंगे अगर संपूर्णता में नहीं तो भी बहुत हद तक’..आजादी की रात 14, अगस्त 1947 को भविष्य की उम्मीदें लिए जवाहर लाल नेहरू का यह उद्गार हमें आज भी रोमांचित करता है। अफसोस, 65 साल की आजादी में हमारी मुलाकात हमारे मुकद्दर से आज तक नहीं हो सकी। मुगल काल के समय भारत दुनिया का सबसे अमीर देश हुआ करता था। जो आर्थिक हैसियत आज अमेरिका की है, कभी हमारी थी। अकबर का साम्राज्य उस समय की दुनिया में सबसे सशक्त रहा होगा। कितनी ही सदियों के घुमावदार रास्तों से गुजरता हमारा इतिहास एक पैटर्न लेकर चलता है, जैसे ईश्वर का कोई अंतर्निहित उद्देश्य हो। सिकंदर हमारी सीमाओं तक आता है, पंजाब से आगे नहीं बढ़ता। हमें सचेत कर जाता है। बुद्ध का आगमन होता है। विषमताओं, कुरीतियों को दूर करने एवं अतिशय कर्मकांडों को विराम देने के लिए। बुद्ध का प्रयास धर्म को सहज, सर्वसुलभ बनाने का है। खंडित हो रहे समाज में आंतरिक जिजीविषा का अभाव हो चला था। अरब में इस्लाम का उदय, ईसाइयत को भारत की सीमाओं तक पहुंचाने से रोक जरूर देता है, लेकिन अपनी कमजोरियों के कारण सिंध में अरब की धार्मिक जुनूनी सेनाओं को हम रोक नहीं सके।
अरबों, तुर्को, अफगानों की धार्मिक सेनाओं के विरुद्ध भारत के जिस हिस्से ने अपनी शहादत दी उसे हम आज पाकिस्तान के नाम से जानते हैं। कितना आश्चर्यजनक है कि जब आजादी का वक्त आया तो भारत को जुनूनी हमलों से बचाने वालों ने अपना अलग देश बना लिया। अब हम तीन देश हैं जिनकी आजादी की एक ही मुहिम थी। हम नहीं चाहते थे कि पृथ्वीराज चौहान की सेनाएं मोहम्मद गोरी से हारें, लेकिन वे पराजित हुईं। हम राणा सांगा की भी हार नहीं चाहते थे। हमें हेमू की अनायास हार आज तक अखरती है। ये पराजय पुरानी परंपराओं को पोषित करते रहने, परिवर्तन की हवाओं को न स्वीकार करने का परिणाम थीं। इस देश को बदलना भी था। उस सड़ चुकी व्यवस्था को तो हारना ही था जो इतने बड़े पैमाने पर गद्दार पैदा करती रही है।
इनकी प्रतिक्रियाओं में इतिहास के परदे से हमें राणा प्रताप, शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह जी जैसे कालजयी चरित्र प्राप्त होते हैं। इन पराजयों के परिणामस्वरूप ही हिंदू समाज में कुरीतियों, विषमताओं के विरुद्ध संतों, फकीरों के आंदोलन चले। हिंदुओं और धर्म परिवर्तित मुस्लिम समाज में आपसी सामंजस्य सहभागिता की बातें भी हुईं। इस्लाम शांति का धर्म है, जिसका जन्म ही अरब के विभिन्न कबीलों में आपसी विवादों, युद्धों की शांति के लिए हुआ था, लेकिन इस देश में इस्लाम के मोहम्मद बिन कासिम, गोरी और गजनवी की सेनाओं के साथ आने से जो भ्रांतियां पैदा हुईं उनसे हम आज तक जूझ रहे हंैं। फिर अंग्रेज आते हैं। 1857 में हम सफल हो सकते थे, लेकिन हमने इतिहास की धारा को पीछे मोड़ते हुए बहादुर शाह जफर को ताज पहना दिया था। अगर उस समय हम अंग्रेजों को बाहर कर सकते तो आज खुद कितने देशों में बंटे होते, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अंग्रेजी शासन की राष्ट्रव्यापी मजबूरियों ने हमें एक कर दिया। सिंध के राजा दाहर की हार से लेकर 1857 की जंगे आजादी तक अगर किसी भी युद्ध में हम सफल हो गए होते तो हम वह न होते जो आज हैं। हम आजाद होते हैं ऐसे नेताओं की सरपरस्ती में जिनकी सोच राष्ट्रीय रही, जो समानता, पंथनिरपेक्षता और शोषणविहीनता की बात करते हैं। हम राजाओं और नवाबों के दौर में आजाद नहीं हुए वर्ना यह एकता मात्र एक दिवास्वप्न होती।
तो अब भविष्य क्या है? गांधी ने भारत की आत्मा से साक्षात्कार किया था, लेकिन मुकद्दर से नहीं। नेहरू ने राष्ट्र का आधारभूत ढांचा तो खड़ा किया, संस्थाओं को सक्षम बनाया, लेकिन भारत को दुनिया की एक शक्ति बनाने की दृष्टि उनकी नहीं थी। दुर्भाग्यवश प्रारंभिक नेताओं ने आजादी की ऊर्जाओं को हवा में उड़ जाने दिया। वायदे के मुताबिक सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की कोई मुहिम नहीं चली। मजबूरन अंबेडकर को अलग होना पड़ा। डॉ. लोहिया और जेपी जैसी संभावनाओं का कोई उपयोग नहीं हुआ। कश्मीर, चीन, तिब्बत सीमा विवाद और 1962 की हार की विरासत देकर नेताओं की पहली पीढ़ी विदा होती है। 1965 की विजय, हरित क्रांति के उत्साह और फिर 1971 की महान विजय ने हमें उस दिशा में उन्मुख किया जो हमारे भाग्य का रास्ता था, लेकिन राजनीति की तात्कालिक मजबूरियां हमें हमारे रास्तों से डिगा देती हैं। सत्ताओं के खेल हमारे देश पर भारी पड़ रहे हैं। अंग्रेजी शासन के विरुद्ध अपने आंदोलन में गांधी ने विरोध के साथ रचनात्मक कार्यो की भी अलख जगाई। शिक्षा, अछूतोद्धार, कुटीर उद्योग, स्वदेशी आदि उनके अभियानों के मुख्य भाग थे, लेकिन आजादी के बाद की विरोधी राजनीति के लिए ये उदाहरण नहीं बने। जेपी का आंदोलन विशाल संभावनाएं लिए था, लेकिन वह सत्ता की चौखट पार करने के बाद बिखर गया। सिर्फ विरोध के लिए विरोध व रचनात्मकता के अभाव ने हमारे सामने नेतृत्व का अकाल उत्पन्न कर दिया है। जातियों, क्षेत्रों और तात्कालिक लाभ की सोच से मुक्त न हो पाने का संकट बड़ा है। हमारी राजनीति वापस उन्हीं रास्तों पर चल पड़ी है जिन्हें हम सोचते थे कि हम पीछे छोड़ आए हैं।
हम अपनी नियति की राह से भटके हुए राष्ट्र हैं। यह तो नहीं था हमारा भाग्य कि देश में गरीबों की संख्या आजादी के वक्त देश की कुल आबादी से कहीं अधिक हो जाए। कश्मीर को आजाद कराने के लिए बढ़ती जा रही सेनाओं को जबरदस्ती खुद रोक देना तो हमारी नियति नहीं थी। गठबंधनों और वोटबैंकों से मजबूर राजनीति से परिवर्तन की उम्मीद बेमानी है। यथास्थिति उनकी बाध्यता है। आज राजनीति के पास असम, कश्मीर के समाधान नहीं हैं। हमें अपना भविष्य सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आंदोलनों में देखना है। समाज को एकता के सूत्र में जोड़ना जरूरी है। उन जातीय, क्षेत्रीय सीमाओं को मिटाना जरूरी है जो सदियों से हमारे बीच खड़ी की गई हैं, जिन्हें राजनीति ने और गहरा कर दिया है। हमने अभी दो नए प्रयोग देखें हैं, अन्ना हजारे एवं बाबा रामदेव के रूप में। इनकी अपनी सीमाएं है। सामाजिक आंदोलनों की मुश्किल राह पर चलने के लिए कोई तैयार नहीं है। सामाजिक विषमताओं का समापन आजादी का भूला-बिसरा एजेंडा है। क्रमश: हाशिए पर जाती राजनीति के मद्देनजर सामाजिक सांस्कृतिक अभियान ही राष्ट्रीय सशक्तीकरण का एकमात्र माध्यम है। जब भी हम अपनी नियति का रास्ता रोकते हैं, हमें भयानक परिणाम भुगतने पड़ते हैं। कोई सूत्रधार है हमारे भविष्य का जो हमें लगातार सचेत करता रहता है, विचारों के नए झोंके भी आने देता है। हमारा भाग्य विधाता हमें लगातार एकात्मकता की दिशा में प्रेरित करता है।
(लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं)

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