Saturday, April 21, 2012

राष्ट्रीय नेतृत्व की तलाश



( आज 21 अप्रैल को दैनिक जागरण में प्रकाशित )



समय ऐसा है कि जैसे भारत का भाग्यविधाता किसी ट्रेजेडी की पटकथा लिख रहा हो। ध्वस्त होती राष्ट्रीय राजनीति के बीच 2जी घोटाले के बैकग्राउंड म्युजिक में अन्ना हजारे का लोकपाल मुद्दा, रामदेव लाठीचार्ज कांड, फिर सेनाध्यक्ष की आयु संबंधी विवाद, रेलवे बजट पर वापसी, चिट्ठी लीक प्रकरण और फिर पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे को फांसी संबंधी विवाद। किंकर्तव्यविमूढ़ता और असहायता का अंतहीन दौर प्रारंभ हो गया लगता है। संविधान निर्माताओं ने हर उस दशा का आकलन किया था जो वक्त के साथ राजनीतिक परिवर्तनों के दौर में हो सकता है। संविधान निर्माताओं ने कहा था कि भारतीय संविधान का असल परीक्षण तब होगा जब केंद्र एवं राज्यों में भिन्न-भिन्न दल सत्ताओं में होंगे। ऐसी भी स्थिति आ सकती है जब सारे राज्यों में अलग-अलग दल एवं केंद्र में उन्हीं दलों की संयुक्त सरकार सत्ता में हो, लेकिन यह तो कल्पनाओं से भी परे था कि तंत्र की यह दशा होगी कि किसी हत्यारे को फांसी देने से कभी कोई जेल सुपरिंटेंडेंट भी इंकार कर देगा। काश ऐसी हिम्मत 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को लाहौर जेल में फांसी देने वालों ने दिखाई होती।
हमारे लोकतंत्र का जहाज ऐसे झंझावातों, तूफानों में फंस गया है जिसके अंदेशे तो बहुत पहले से दिख रहे थे, लेकिन हमने समस्याओं से बचकर निकल जाने की अपनी मानसिकता के मुताबिक रेत में सिर दे रखा था। समस्याओं की ओर से आंख बंद कर लेना भी जैसे समाधान का एक रास्ता है। अपने लोकतंत्र के बिगड़ते हालात को स्वीकार करने से हम लगातार इंकार करते रहे है और परिणाम हमारे सामने है। फांसी की सजा स्थगित होने के बाद ऐसा लगता है कि देश में अब शायद ही फांसी की सजाएं हो पाएंगी। अब तो फांसी की व्यवस्था को ही खत्म करने के फलसफे के पैरोकार भी सामने आने लगे है। तंत्र की असफलता का यह उदाहरण बताता है कि हम अराजकता के रेगिस्तान के मुहाने पर खड़े है और इसी रेगिस्तान में होते हुए अब हमारा लंबा सफर शुरू होने वाला है। उड़ीसा में माओवादियों द्वारा इटलीवासी नागरिकों व विधायक की पकड़ के बाद राज्य को समझौते के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। दुर्भाग्य है कि हमारे राज्यों को माओवादियों के सामने तो झुकना मंजूर है, लेकिन एनसीटीसी के प्रावधान मंजूर नही हैं, जबकि यह व्यवस्था अंतत: इन विषम परिस्थितियों में राज्यों के हाथ मजबूत करेगी।
मुगल साम्राज्य के आखिरी दिनों में सशक्त होते जा रहे क्षत्रपों ने आपस में साम्राज्य बांट लिया था। अंग्रेजों ने भारतीय राज्य और समाज की अंतरनिहित कमजोरियों को भांपते हुए नवाबों, राजाओं को नियंत्रण में लेकर अपने साम्राज्य की आधारशिला रखी। आज अंग्रेज तो नही हैं, लेकिन भारत के बाजार, प्राकृतिक संसाधन और श्रमशक्ति की कई देशों को बहुत जरूरत है। चीन उनमें से एक है। नेपाल चीनी शिकंजे में आ चुका है। हमारे यहां राज्य के विरुद्ध माओवादियों का अभियान मजबूत होता दिख रहा है। चारो ओर से भारत को घेरने की स्टिंग आफ पर्ल की चीनी रणनीति अपना काम कर रही है। हम परवाह करते नजर भी नही आते। हमारी आर्थिक उपलब्धियां अर्थहीन हो जाएंगी, अगर हम राष्ट्रीय सशक्तीकरण की दिशा में मजबूती से नहीं चल सकेंगे। मुंबई कांड के गुनाहगार हाफिज सईद पर अमेरिका ने 51 करोड़ का इनाम घोषित किया है। वह हमारा गुनाहगार है। उसे कानून की गिरफ्त में लेने के लिए हम कुछ नहीं कर सके हैं। अमेरिका द्वारा घोषित इनाम पर खुश होकर हम अजीब सी प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं। कोई दूसरा देश हमारे नागरिकों के हत्यारों की तलाश कर रहा है, इनाम घोषित कर रहा है। हम इंतजार में बैठे हैं कि पाकिस्तान का डेलीगेशन कसाब के बयान दर्ज कर ले जाए। हमारे ही जैसे देशों के लिए भू-राजनीति के अध्येताओं को साफ्ट पावर जैसे शब्द गढ़ने पड़े होंगे। हम साफ्ट पावर हैं अर्थात दुनिया के लिए हमारी कोई सैन्य हैसियत नहीं है। हम दुनिया के लिए बाजार बन कर खुश होते हैं। देश को तोड़ने वाले राष्ट्रीय अस्मिता का मजाक उड़ाने वाले लोग प्रभावशाली हो रहे हैं। यह सब मुगल साम्राज्य के अंतिम दिनों को एक बार फिर से गुजरते हुए देखने जैसा है। क्या कोई ऐसा राष्ट्रहित का मुद्दा है ही नही जिस पर हमारे ये बड़े राष्ट्रीय दल एक हो सकें? हम क्षेत्रीय शक्तियों को क्या दोष दें, जबकि बड़े दलों की सोच भी मात्र किसी तरह सत्ता में ही पहुंचने तक सीमित हो गई है। आज विचारशून्यता का संकट बहुत बड़ा हो गया है।
यज्ञवेदी से बलपूर्वक उठाए गए भीषण असम्मान से आहत आचार्य चाणक्य में इतना बुद्धि कौशल तो था ही कि वह तत्काल ही मगध के शासक धनानंद के विरुद्ध षड्यंत्रों की श्रृंखला प्रारंभ कर दें। लेकिन नहीं, उन्होंने अपनी वेदना को सर्जना की शक्ति में बदला। नंद वंश के पराभव से पहले मगध को एक योग्य शासक की आवश्यकता होगी। चाणक्य नगर-नगर, ग्राम-ग्राम मगध के लिए योग्य उत्तराधिकारी की तलाश में वर्षो घूमते रहे। अंतत: यह खोज मोरिय गणराज्य में सामान्य परिवार के एक तेजस्वी बालक चंद्रगुप्त पर जाकर समाप्त हुई। विद्रोही चाणक्य की पहली चिंता व्यक्तिगत प्रतिशोध नहीं है, बल्कि यह है कि मगध का शासक कैसा होना चाहिए। इस अभियान में महाराज धनानंद से बदला लेने की उनकी भावना बहुत पीछे नेपथ्य में चली जाती है। साम्राज्यों के उस प्रारंभिक काल में भी हम देखते है कि राष्ट्र के उद्देश्यों के सामने चाणक्य के व्यक्तिगत हित कहीं है ही नहीं। आज हमारी राजनीति चाणक्य को भूल चुकी है।
चाणक्य हमारे बीच होते या उनकी सोच को हमने अपनाया होता तो भारत अमेरिका के आसपास एक सशक्त आर्थिक-सैन्य सक्षम राष्ट्र के रूप में होता। हां हमे थोड़ा सा गांधी और नेहरू के सपनों का भी भारत चाहिए, लेकिन चाणक्य कोई स्वप्नजीवी नहीं, बल्कि असलियत की खुरदुरी जमीन पर चलने वाले राजनेता थे, जिन्होंने राज्य और धर्म के हित में एक महान साम्राज्य का मार्ग प्रशस्त किया था। भारत के महानतम् साम्राज्य निर्माता चंद्रगुप्त मौर्य की जाति के संबंध में आज भी इतिहासकारों में विवाद है। चाणक्य ने चंद्रगुप्त का चयन करने में उनकी जाति पर विचार ही नही किया। बहुलतावाद, जातीयताओं ओर क्षेत्रीयताओं की भेट चढ़ती हमारी राजनीति प्राचीन भारत के इन जातिविहीन शासकों से भी चंद पाठ पढ़कर शिक्षा ग्रहण कर सकती है। राष्ट्र सशक्त नेतृत्व से बनते हैं। किसी ने पंजाब को अपना देश मान लिया है, किसी ने कश्मीर को, किसी ने महाराष्ट्र को तो किसी ने असम को। राष्ट्रहित में प्रत्येक राष्ट्रनायक को निहित स्वार्थी स्थानीय प्रवृत्तियों को पराजित करना पड़ता है। आज के परिदृश्य में विरोधी प्रवृत्तियां तो सशक्त होती दिख रही हैं, लेकिन राष्ट्रीय नेतृत्व? ईश्वर करे कि कोई चाणक्य किसी चंद्रगुप्त को कही तलाश कर रहा हो।
(लेखक पूर्व सैन्य अधिकारी हैं)

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