Thursday, May 24, 2012

स्वागत है भोजपुरी का


(आज 24 मई को दैनिक जागरण मे प्रकाशित)


भोजपुरी के पैरोकारों के लिए अच्छी खबर है। जैसाकि गृहमंत्री ने कहा है, मानसून सत्र में भोजपुरी को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल कर लिए जाने की पूरी संभावना है। राजनीति का संबल लेकर भोजपुरी के संविधान की 8वीं अनुसूची तक पहुंचते ही अन्य बोलियों, भाषाओं के लिए भी राजनीति का रास्ता खुल जाएगा। आठवीं अनुसूची में प्रवेश के लिए 38 और भाषाएं इंतजार में हैं। भोजपुरी के कई रूप देखने को मिलते हैं, एक तो ठेठ भोजपुरी जो भोजपुर क्षेत्र में बोली जाती है, एक हमारे बनारस की बनारसी भोजपुरी है जो मेरे विचार से भोजपुरी का सबसे मधुर व स्वीकार्य रूप है। इसी तरह जौनपुर, इलाहाबाद की अवधी-भोजपुरी के सम्मिश्रण का भाषायी स्वरूप भी है। आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने से पूर्व भोजपुरी का एक व्याकरण भी स्थिर कर लेना आवश्यक होगा, क्योंकि संवैधानिक स्वीकार्यता के साथ परीक्षाएं आदि भी इसी भाषा में होने की मांग शुरू हो जाएगी। स्वीकार्य भाषा स्वरूप का अभाव अनेक समस्याएं उत्पन्न करेगा। भोजपुरी के स्वीकार के बाद आंदोलन यहीं नहीं रुकेगा। हमारी राजनीति को फिर भोजपुर राज्य की आवश्यकता पड़ेगी। जाहिर है कि जब इतने संघर्ष के बाद भोजपुर राज्य बनेगा तो उसमें भला हिंदी का क्या काम? समस्त राजकीय कार्य भोजपुरी में होंगे और विद्यालयों में अनिवार्य भोजपुरी पढ़ाई जाएगी। सांस्कृतिक विकास का सर्वथा नवीन परिदृश्य हमारे सामने आएगा।
संविधान में भोजपुरी का स्वीकार अंग्रेजी वालों के लिए भी अच्छी खबर है। जब बिहार, पूर्वाचल में भोजपुरी, अवध में अवधी, आगरा-मथुरा में ब्रजभाषा, बुंदेलखंड में बुंदेलखंडी लागू हो जाएगी, तो हिंदी के पैरोकार खोजे न मिलेंगे। जब आज तक हिंदी ही अंग्रेजी के सामने खड़े होने की औकात नहीं हासिल कर पाई तो इन क्षेत्रीय भाषाओं की बिसात ही क्या? अब हिंदी का क्या कहा जाए? जो भाषा आजादी के 60 वर्षो में अपनी कोई राष्ट्रीय हैसियत नहीं बना सकी उसे इस प्रकार की क्षेत्रीय भाषाओं के लिए रास्ता तो छोड़ना ही पड़ेगा। चिदंबरम अंग्रेजी वाले हैं। उन्होंने संसद में भोजपुरी में अभी सिर्फ एक वाक्य बोला है। यदि अगले सत्र में भोजपुरी गीत गाते मिले तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्षेत्रीय भाषाओं का वर्चस्व आने के बाद हिंदी कहां बोली जाएगी? शायद दिल्ली, लखनऊ, हैदराबाद या मुंबई की फिल्मी दुनिया ही हिंदी की शरणस्थली बने। हिंदी के मास्टर सिर्फ असम, महाराष्ट्र से ही नहीं भगाए जाएंगे। अपने कहे जाने वाले विश्वविद्यालयों में भी आगे जगह न मिलेगी। इस भाषिक क्षेत्रवाद का विरोध भी न हो पाएगा। अंग्रेजी के मुकाबले तो हिंदी कमजोर लड़ाई ही सही, खड़ी तो हो रही थी, लेकिन इस बार तो उस पर अपनो की मार पड़ी है। जिन भाषाओं, बोलियों की समृद्धि पर हिंदी इतराती रही, भाषायी राजनीति के चलते वे ही उसका साथ छोड़ देंगी। आज हमें हिंदी के लिए शक्ति की आवश्यकता है। ऐसे में जब हमारी अपनी लोक भाषाएं ही घर बांट लेंगी तो हिंदी का क्या होगा?
हिंदी संघर्ष की भाषा रही है जो आजादी के दौर में देश की भाषा बनकर परवान चढ़ी। आजादी के दौर के अधिकांश नेताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिए जाने की वकालत की थी, लेकिन आजादी के बाद क्रमश: मजबूत होता क्षेत्रीयता का बहाव हमारा बहुत कुछ लूट ले गया है। हिंदी भी इसका शिकार बन रही है। हिंदी को तो अभी देश की भाषा बनना बाकी है। देश का दलित शोषित वर्ग यदि तमिलनाडु से लेकर असम और पंजाब तक एक भाषा में बात करने की सोचे तो वह कौन सी भाषा होगी? देश का अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज यदि राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श करना चाहें तो वह भाषा हिंदी ही तो हो सकती है। हम तो चाहते रहे हैं कि मीर, गालिब, फैज का साहित्य भी हिंदी के विस्तीर्ण कलेवर का हिस्सा बने। हिंदी उस संपूर्ण वर्ग की भाषा बने जिनकी आवाज ऊपर तक नहीं पहुंच पाती। लेकिन इससे पहले कि हमारे ये स्वप्न असलियत में बदलते, नए-नए खतरे सामने आने लगे हैं। क्षेत्रीयता के शहसवारों ने इलाके बांटने के साथ ही संस्कृतियों, भाषाओं को भी बांटना शुरू कर दिया है।
भाषा की कोई सीमा नहीं होती। भाषाओं को समय एवं क्षेत्र की मुट्ठी में कैद कर पाना भी संभव नहीं होता। संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा भी अपभ्रंश, प्राकृत, पाली आदि के पड़ावों से होती हुई आज लोकभाषाओं के रूप में है। हमारी हिंदी भी इसी विकास क्रम का प्रतिफल है। आज भाषाएं समन्वय की दिशा में उन्मुख हैं। बहराइच की अवधी बोलते-बोलते हम सिर्फ पांच घंटे में वाराणसी के भोजपुरी भाषी क्षेत्र में पहुंच जाते हैं। अवधी भोजपुरी आपस में गड्ड-मड्ड होने लगती है। लेकिन दोनों भाषाओं का अपना आनंद है। ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी हमारी लोक भाषाएं है जो हमारे अस्तित्व का हिस्सा है। भारतीय वॉड़मय में ‘रामचरित मानस’ से महान कोई रचना नहीं, सूरदास से बड़ा कोई कवि नहीं है। अपनी इन महान लोक रचनाओं को हम आज तक हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि मानते हैं। भाषाओं की आसन्न राजनीति में कल क्या होगा? इन लोक रचनाओं के बगैर क्या हिंदी साहित्य की कल्पना भी संभव है? हमने इलाके तो बहुत बार बांटे है इस देश के लंबे इतिहास में, आज क्यों भाषाओं, साहित्य एवं कवियों को भी जागीर समझकर बांटने पर आमादा हो रहे हैं? लोक भाषाएं हिंदी की क्षति का कारण न बनें, यह बात हम सभी अवधी, भोजपुरी राजस्थानी लोक भाषा-भाषियों को ध्यान में रखनी जरूरी है। हम अंग्रेजी वालों का खेल समझते रहें। भोजपुरी हिंदी की सशक्त पक्षधर बने, इस उम्मीद के साथ संविधान की 8वीं अनुसूची में भोजपुरी का स्वागत है।

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