Tuesday, January 10, 2012

सहभागिता की खोज




      भारतीय परिवेश में सहभागिता की बातें कहीं मात्र दिवास्वप्न या ख्यालीपुलाव ही तो नही रह गई है । सहभागिता की कोशिशें, संस्थागत व सरकारी प्रयास भी जमीन पर उतरते नही दिखाई देते । सहकारिता या को-आपरेटिव  आंदोलन का अपने देश में जो हश्र हुआ है वह किसी से छिपा भी नही है। सरकारी संस्थाओं के राजनीतिकरण के शिकार हो जाने के बाद बैंकों, औद्योगिक क्षेत्र में कुछ जेबी किस्म के संस्थाओं पर सहकारिताओं के प्रयोग हुए, जिसका कहीं से कोई लाभ आम जनता तक नही पहुॅच पाया है। वैसे भी सहभागिता और सहकारिता अलग-अलग शब्द है। सहकारिता या को-आपरेटिव शब्द अपने यहॉ बदनाम कर दिया गया है और सहभागिता अभी जमीन पर नही उतरी है ।

      64 वर्ष की लोकतांत्रिक आजादी के बाद सहभागिता को तो हमारी जिंदगी का हिस्सा बन जाना चाहिये था, लेकिन ऐसा हुआ नही ।  किसी परम्पराप्रिय इतिहासजीवी से प्रश्न किया जायेगा तो वह बतायेगा कि किस प्रकार ग्रामीण भारत में समाज एक दूसरे से सहयोग करते हुए अपने कार्यो को सम्पादित करता था।  ग्राम एक स्वनिर्भर इकाई था व आत्मनिर्भर सहभागिता हमारा आदर्श रहा है ।  प्रश्न है कि अगर हमारा इतिहास और हमारा लोकतंत्र भी सहभागिता को लेकर चलता है तो फिर आज समस्यायें क्यो है ? क्यो ऐसा है कि आज सहकारिता और सहभागिता को अपना कर चलने वाले संगठन नही है ।  यदि ऐसा हो सकता तो हमारे गर्वनेंस पर जो इतना बड़ा भार है एवं जीवन के हर पक्ष में      सरकार का जो दखल है तो वह स्वतः काफी कम हो जाता ।  लेकिन स्थितियॉ इसके ठीक उलट है।  ग्रामीण भारत का संतुलन परस्पर जातीयनिर्भरता पर आधारित था जो ग्रामों के आत्मनिर्भर होने का आभास देता था ।  जातियों के भिन्न भिन्न कर्म थे एवं जाति आधारित व्यवस्था में प्रत्येक जाति की आवश्यकता प्रत्येक दूसरे को थी ।  तात्पर्य यह कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की यह भूमिका इस परस्पर निर्भरता में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही है ।  गॉधी की ग्राम्य परिकल्पनाओं में हमे यही भारत दिखता है ।  लेकिन परिकल्पनाओं में बसे गॉवों के सौन्दर्य के अवलोकन में यह नही देखा गया कि वक्त के साथ किस प्रकार यह व्यवस्था ऐसी जातीय जकड़न का शिकार हो गई जिससे निकल पाना असम्भव हो गया था।  कारण? कारण यह कि यह ग्राम्य व्यवस्था आर्थिक आधारों को छोड़कर सामन्तवादी शोषण का शिकार हो गई ।  अंग्रेजों ने इन सामंतो को अपना मोहरा बनाकर इस ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कुटीर उद्योगधंधों का तबीयत से नाश किया । 

नगरीकरण, आजादी और लोकतंत्र का सर्वाधिक लाभ इसी सामंतवर्ग को मिला है। खूबसूरती यह कि ग्रामीण भारत का यही अकर्मण्य, शोषक वर्ग आजादी के बाद लोकतंत्र  का अगुवा भी बना। भारतीय राजनीति पर जब स्वप्नजीवी किस्म के लोगों का वर्चस्व हो गया तो कहीं कोई भी ग्रामीण भारत, उसकी सहभागिता, परस्पर निर्भरता आधारित अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता नही दिखा। बकौल श्रीलाल शुक्ल वैद्य जी ने अपनी भंग पीसने वाले को प्रधान बनवा दिया ।  शहर एक आकर्षण बना और उसने गॉव के बाजार और पूॅजी का नाश करना प्रारम्भ कर दिया । “राग दरबारी” का लंगड़ जान ही नही सका कि जिस गॉधी बाबा की जय बोलकर वह नकल बाबू को रिश्वत न देने की कसम खाता है , गॉवों की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने वाले लोग भी उसी की तरह गॉधी बाबा के ही चेले है ।  क्या किया जाना था गॉवों में ? जाहिर है अशिक्षा दूर करनी थी , कृषि को बेहतर बनाकर,  ग्राम्य उद्योगों को तकनीक सक्षम बनाकर उनके उत्पादों की गुणवत्ता सुधारते हुये बगैर दलालों के नगरों के बाजार तक ले जाना था। ग्राम्य कुटीर उद्योगों के सामानों का फैशन चल सकता था शहरों में ।  उद्योगों की शिक्षा, प्रशिक्षण के लिये विद्यालय आदि स्थापित किये जाते । अगर प्रयास किया गया होता, तो हो सकता था कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों के बने हाथ के सामानों , हैण्डलूम के कपड़ों का, विदेशों तक में क्रेज हो गया होता वैसे ही जैसे कालीनों, चमड़े के सामानों और पीतल के बर्तनों की तरह बहुत से कुटीर उद्योगों का हो गया है । लेकिन सामंतवाद की गुलाम बनी भारतीय राजनीति में ग्रामीण सहभागिता व सशक्तीकरण की परवाह ही कहॉ थी। हमारी राजनीति इतने से ही चुप नही बैठी । उपभोक्ता उत्पादों की मशीनीकृत फैक्ट्रियां लगाई गईं । शहरी पूॅजी के हित साधन के लिये ग्रामों को बाजार एवं सस्ते श्रम के माध्यम में बदल देने का कार्य किया गया ।  आश्चर्य यह होता है कि यही काम तो अंग्रेजी ने भी किया था। फिर आजादी का अर्थ क्या बना ? सहकारिता या को-आपरेटिव का जो भी आंदोलन चलाया गया सामंतों ने उसे नष्ट कर डाला । हमने देखा है कि इन ग्रामीण सामंतों और उनकी लठैत जातियों में लोकतंत्र की सोच आज भी नहीं है । अफसोस है कि सामंती वर्ग के समान लोकतंत्र के नये पैरोकारो में भी सहभागिता की सोच का अभाव है । सहकारिता के संस्थान घोटाले और गबन की भेंट चढ़ गये ।  वेलफेयर स्टेट के अर्थशास्त्रियों ने प्रारम्भ से लेकर अबतक ग्राम्य भारत की क्षमताओं की अभिवृद्धि करने के प्रश्न को दरकिनार कर उसे सबसिडी पर जिंदा रहने वाली कौम में बदल डालने की पूरी कोशिश की है । कर्ज किसके माफ किये जाते है?  बिना काम मजूदरी किसे दी जाती है ? हमारे मरने पर दया करके अनुकम्पा सहायतायें क्यों दी जाती है ?  यह सब इसलिये कि हमारे दिलोदिमाग में बैठ जाये कि हम गरीब है, बेचारे है, असहाय है, हम ग्रामीण भारत है ।  तुम कौन हो, हम पर दया करने वाले ? हम तुम पर , तुम्हारी अर्थव्यवस्था पर बोझ है क्या ? तुम बताना चाहते हो कि हम न होते तो तुम्हारे खजाने पर सबसिडी का बोझ न होता। अगर कृषि , ग्राम्य उत्पादों की सही कीमत किसान, कर्मकार को मिलने लगे तो गॉव से पूॅजी का पलायन रूक जायेगा। हमें जरूरत ही नहीं होगी कि सरकारें हमारी बेटियों की शादियां करवाये । सही दाम न मिलने से ही ग्रामीण भारत आज गरीबी के प्रभाव क्षेत्र में है । ये नई आर्थिक व्यवस्थायें ग्रामीण भारत को बोझ समझ रही   हैं । हमारा नया सामंत वर्ग इन नई अर्थव्यवस्थाओं में अपनी नई कमाई की पूॅजी लगाता  है । फिर हमारे यहॉ हैण्डपम्प, खडंजा लगवाने के बदले वोट लेने आता है ।
     
 अपने गॉवों को जिंदा करने और वर्चस्व की जंग जीतने का क्या रास्ता है ? क्या ग्रामीण भारत की सोच वाले अर्थशास्त्रियों ने गांवों के संसाधनों के विकास के बारे सोचा   है ? बैल खत्म हो गये, जो गायंे भैसें हैं, वे भी इंजेक्शन से दूध दे रही हैं ।  डेरियॉ गॉवों मेें नही , शहरों की घनी बस्तियों में है।  आज की राजनीति एफ0डी0आई0 वालमार्ट से परेशान हो गई मालूम पड़ती है। क्यों ? चलिये मान लेते है कि इससे देश का पैसा बाहर जाता है । खिलौने, लक्ष्मी-गणेश, दीवाली के दीपक चीन से आ रहे हैं । शहरों के व्यापारी बेच रहे हैं । देश का पैसा चीन जा रहा है, सुजुकी , हुण्डई ले जा रही है। वहां कोई आंदोलन नहीं । देश का पैसा देश में ही रहे , इसलिये हमे भारतीय वालमार्ट चाहिये, ग्रामीण भारत के प्रतिनिधियों, किसानों, ग्रामीण उद्योगों द्वारा सचांलित । हर शहर हर कस्बे में ग्राम मार्ट खुले , जहॉ गॉव की उपज बिना किसी शुल्क सीधे ग्राहकों को बेची जा सके।  हर नगर में 50 से 100 एकड़ जमीन का परिसर हमें चाहिये , जिससे बिचौलियों के शोषण से मुक्ति मिले ।  आप देखंेगे कि विदेशी वालमार्ट का विरोध करने वाले देशी ग्राममार्ट का और तेज विरोध करेंगे ।  चाहे इस देश में खिलजियों का राज रहा हो, अंग्रेजों का या नवसामंतो का, ग्रामों का सशक्तीकरण कभी भी इन्हे रास नही आया है ।  अब तक हमने नगरीय  व्यवसायिक पूॅजी को ग्रामीण कर्मकारों, किसानों का शोषण करते हुये ही देखा है ।  ग्राम्य सहभागिता का नया दर्शन अपनाते हुए अपने उत्पादों को सीधे ग्राहकों, उपभोक्ताओं तक पहुॅचा कर ग्रामीण समृद्धि की दिशा में कदम बढ़ाने का वक्त आ गया है । हॉं, सहभागिता के लिये जातीय दुर्भावनाओं को तिलांजलि देनी ही होगी । यह आन्दोलन नये जमीनी कृषक नेतृत्व खड़े कर सकता है ।
     
 मण्डियों को ग्राम्य उत्पादकों की सहभागिता आधारित संस्थाओं द्वारा अपने कब्जे में लिया जाना एक महत्वपूर्ण लक्ष्य नियत किया जा सकता है। यह ग्रामीण भारत की आत्मनिर्भरता की सोच रखने वाले कृषक समाज, ग्राम्य उद्योग प्रतिनिधियों और ग्राम्य अर्थशास्त्रियों के लिये एक बड़ी चुनौती है। शहर गॉंव के विरूद्ध खड़ा है । चीन का दीपक कुम्हार को मार रहा है । बड़े पैमाने पर प्रत्येक कस्बे नगर में ग्राममार्टो की स्थापना एवं उनकी आपूर्ति चेन बनाये जाने व सम्पूर्ण संगठन खड़ा करने का दायित्व ग्रामीण भारत में आस्था रखने वाले सच्चे प्रतिनिधियों का है । गुजरात का डेरी आंदोलन हमारे सामने सहभागिता का हिन्दुस्तानी उदाहरण के रूप में है । देखना है कि सहभागिता के प्रयोग के लिये अचानक उपस्थित हो गये इस स्वर्णिम अवसर का उपयोग हमारा ग्राम्य भारत किस प्रकार करता है।

2 comments:

  1. आपका स्वागत है ... ब्लॉग्गिंग वर्ल्ड में...

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  2. आदरणीय लेखक महोदय को इस बहुत शानदार लेख के लिए बधाई...सहभागिता की जमीनी खोज ही एक स्वतंत्र लोकतंत्र की पहली जरुरत है .दुर्भाग्यवश आज़ादी के 60 से अधिक वर्षों के बाद भी गांधीजी का "स्थानीय सुशासन" यानी "हिंद-स्वराज" का प्राथमिक एजेंडा आज भी हाशिये पर है और मजबूत सभ्य समाज यानी सिविल सोसायटी का अस्तित्व मुकम्मल नहीं हो सका है. इस पर भी चुनौती है वर्तमान बुद्धिजीवी समाज की "सिविक सक्रियता" के प्रति उदासीनता और शैक्षिक संस्थानों में सक्रियता का गिरता स्तर, विकास, जन-अधिकारों और "सुशासन" की "परिभाषाओं के पुनार्विवेचन" और "विचार से कार्य तक" के लिए मंच स्थापित करने की जिम्मेदारी इसी वर्ग की बनती है. नतीजा "स्थानीय शासन " भी "नवजात अवस्था" में ही नज़र आता हैं . आज जरुरत है "स्थानीय निकायों के सशक्तिकरण" की जिससे वे जन -सहभागिता के प्रयोगों को करने के लिए स्वतंत्र माहौल बनाया जा सके . इससे ही शासन की शक्तियों का समुचित विकेंद्रीकरण संभव हो सकेगा. लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर में यह दिवा स्वप्न मात्र लगता है. फिर भी कानपुर में नगर प्रशासन की कुछ पहलों और "उत्तर आन्दोलन प्रभावों" के इस दौर में यदि एक तबका ऐसे स्वप्न देखता है तो इसे ही क्यों न शुरुआत मान लिया जाए.

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