Sunday, February 5, 2012

राजनैतिक प्रयोगधर्मिता की आवश्यकता ...

आखिर हमारे देश में राष्ट्रस्तरीय नेतृत्व का अकाल क्यों है ? सवाल यह भी बनता है कि आज राष्ट्र स्तरीय नेतृत्व की आवश्यकता ही किसे है ? जवाबों की तलाश हमें हमारी राजनैतिक व्यवस्था की ओर ले जाती है । हमारी राजनीति आज अगर राष्ट्रीय स्तर के नेता नहीं पैदा कर रही है तो कहीं इसके लिये हमारी व्यवस्था तो जिम्मेदार नहीं है ? हमारे राष्ट्रीय नेता तो आजादी के आंदोलन की उपज थे । राष्ट्रीय नेताओं की जाति का खत्म हो जाना एक बड़ा सरोकार है । कारण ? क्षेत्रीयता, राष्ट्रीयता पर हॉवी हो चली है । हमने अनेकों प्रधानमंत्री देखे हैं जिनको देश की जनता ने प्रधानमंत्री के रूप में सोचा ही नहीं   था । सांसदगण द्वारा चुना गया नेता मूलतः सांसद होता है । अतः मात्र एक संसदीय क्षेत्र हमारे नेतृत्व की स्वतः सीमा बन जाता है । चूकि सम्पूर्ण राष्ट्र किसी का चुनाव क्षेत्र नहीं बनता , इसलिये राष्ट्रीय नेताओं की संभावनायें समाप्त होती गई हैं । विकास की ओर अग्रसर इस देश में लीक से हटकर परिवर्तन के बारे में सोचना जरूरी हो गया है । कोएलिशन की मजबूरियॉं हमें अपंग कर कहीं गुलाम न बना दें ।

 अमेरिका में राज्यपाल का सीधे जनता द्वारा चुनाव होता है । प्रतिनिधि सभाओं के चुने हुये प्रतिनिधि एक्ट पास कराने, बजट व्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण भूमिका तो निभाते हैं लेकिन वे राज्यपाल को हटा नहीं  सकते । चार वर्षों तक स्थिरता का वातावरण राज्यपाल को विकास की सोच का अवसर देता है । इस कारण अमेरिका में राज्यपालों पर राजनैतिक दबाव की संभावनायें बहुत कम हो जाती हैं । प्रतिनिधिगण कानून बनाने के दायित्वों का निर्वहन करते हैं । चूंकि प्रतिनिधि की मुख्यतः  भूमिका विधिक होती है, अतः दबंगों, माफियाओं, दादाओं का प्रतिनिधि सभा में कोई काम ही नहीं है । इसलिये अमेरिका में कोई माफिया किस्म का आदमी चुनाव लड़ता नहीं दीखता । अमेरिकी राष्ट्रपति कोई भी हो, बराबर का शक्तिशाली होता है । और हमारा  प्रधानमंत्री ? नेहरू जी बहुत शक्तिशाली थे लेकिन चन्द्रशेखर जी ? उन्हें बीच में ही इस्तीफा देना पड़ा ।    

 अब व्यवस्थाओं के बदलने से हमारी स्थितियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? जैसे कि किसी राज्य की राजनीति में खनन माफियाओं  की बड़ी भूमिका है । उनकी सशक्त लाबी के सामने सरकारें, मुख्यमंत्री तक असहाय हो जाते रहे  हैं । ऐसी स्थिति में नैतिक-अनैतिक, स्याह-सफेद प्रश्नों को दरकिनार कर सत्ताधारी दल येनकेन प्रकारेण अपनी सरकार का अस्तित्व बचाने में लगा रहता है । नतीजन, बिना किसी जिम्मेदारी, जवाबदेही के एक अनैतिक सत्ता केन्द्र का जन्म हो जाता है । हमने अपने गत इतिहास में बंगाल के “दुराज” जैसी स्थितियां देखी हैं । नाम तो नवाब मीर जाफर का लेकिन असल सत्ता लार्ड क्लाइव के हाथ में । वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिफल यह है कि हमें दिन-रात 24 घंटे की वह राजनीति झेलनी पड़ती है , जो 5 वर्ष के अंतराल में एक बार होनी चाहिये । फर्ज करंे कि एक पुलिस अधीक्षक है, जो अपराध नियंत्रण के मोर्चे पर अच्छा कार्य कर रहा है । उसका अच्छा होना राज्य के तो हित में है लेकिन हो सकता है कि यह बात स्थानीय मठाधीश के हित के विपरीत हो । वह किसी थानेदार को उसकी अकमर्ण्यता के कारण हटाना चाहता है तो अक्सर हटा नहीं  पाता । दबावों, समीकरणों से प्रभावित प्रशासन में प्रायः राज्यों के लक्ष्यों के प्रति समर्पण में कमी हो जानी स्वाभाविक है।  राज्यों के शीर्ष नेतृत्व के लिये स्थानीय सत्ता समीकरणों में प्रभावी बन चुके नेता को दरकिनार कर सकना, संभव नहीं होता । हमारी राजनीति सत्ता की दहलीज तक पहुॅच कर आगे लक्ष्यहीन हो जाती है। राजनैतिक बाध्यताओं के कारण बहुत से नीति-नियामक महत्वपूर्ण पदों को समझौतों में दे देना पड़ता है । परिणामस्वरूप एक “एडहाक” अथवा तदर्थ किस्म की व्यवस्था बनती चली जाती  है । हमने देखा है कि विकास का ककहरा भी न जानने वाले ,  प्रदेशों के नेता बन बैठे हैं ।    

वर्तमान लोकतंत्र ने जन जागरूकता, गरीब और उपेक्षित समाज तक सत्ता को पहुंचाने का काम बखूबी किया है । लेकिन   अब से आगे के लिये राष्ट्रपति या अध्यक्षीय शासन प्रणाली ही अधिक उपयुक्त होगी । समझना जरूरी है कि देश का सबसे शक्तिशाली पद असहाय क्यों हो रहा है ? ए0 राजा, कनिमोझी, कलमाड़ी आदि और भी बहुत से वर्तमान व्यवस्था के सशक्त हस्ताक्षर कैसे बन गये ? क्षेत्रीय पार्टियों, छोटे राज्यों, जातीय भाषिक समूहों को प्रश्रय मिलता दिख रहा है । इसके विपरीत राष्ट्रपति, राज्यपाल प्रणाली में विभाजन के स्थान पर संयोजन को सत्ता का माध्यम बनाना मजबूरी होगी । राष्ट्रपति के उम्मीदवार के लिये अनिवार्य होगा कि वह मणिपुर, पाण्डिचेरी जैसे छोटे राज्यों से भी आवश्यक मत प्राप्त करें । अगर आप राष्ट्रपति के उम्मीदवार हैं तो आप बंगला भी सीखेंगे और मराठी भी । यहॉ से राजनीति के राष्ट्रीय एकता की दिशा में उन्मुख होने की शुरूआत हो सकती है ।  संविधान समिति की कार्यवाहियों में 8 एवं 9 जून 1947 को राष्ट्रपति प्रणाली का बिंदु सर्वश्री इमाम हुसैन, शिब्बन लाल सक्सेना द्वारा उठाया तो गया था किंतु गवर्नमेण्ट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की पृष्ठभूमि के कारण यह बिंदु गहन विचार का विषय नहीं बना । बाबा साहब ने 4 नवंबर 1948 को संविधान सभा में कहा था लोकतांत्रिक कार्यपालिका प्रथमतः स्थिर होनी चाहिये , दूसरा, जिम्मेदार होनी चाहिये । अमेरिकी व्यवस्था स्थिर अधिक है, जबकि ब्रिटिश व्यवस्था जिम्मेदार अधिक है । आज की स्थितियों के रूबरू बाबा साहब के विचार क्या होते इसकी कल्पना की जा सकती है । जब स्थिरता ही न होगी तो जिम्मेदारी का प्रश्न ही गौण हो जाता है । जो स्थिर ही नहीं हांेगे वे जिम्मेदार कैसे बनाये जायेंगे ? राजनीति में प्रयोगशालायें नहीं होती फिर भी प्रयोगधर्मिता के लिये सदैव संभावनायें हैं । हिमांचल, उत्तरांखड, झारखण्ड, सिक्किम, गोवा, पाण्डिचेरी आदि छोटे राज्यों में मुख्यमंत्रियों के स्थान पर जनता द्वारा निर्वाचित राज्यपालों की व्यवस्था पर सहमति बनाने का प्रयास किया जा सकता  है । स्थिरता विकास की चाभी है । स्थिरता के लिये यह राजनैतिक प्रयोग करके देखा जा सकता है । यदि यह सफल हुआ तो इससे छोटे राज्यों के तर्क को मजबूती मिलेगी और विकास की राह आसान होगी ।      

 कौन कहता है कि राजनीति में प्रयोग की सम्भावनायें नहीं हैं ?  वे व्यवस्थायें जो परिवर्तनों के अनुरूप ढलने से इनकार करती है , उनका समूल नाश क्रांतियों से होता है । राजनैतिक व्यवस्था में भी विकास की अपेक्षा है । क्या हमारी व्यवस्था संविधान निर्माताओं की अपेक्षा के अनुरूप परिणामपरक रही हैं ? 24 घंटे की राजनीति का उलझाव हमारी शक्तियों का इस हद तक अपव्यय करता है कि हम राष्ट्र के प्रति समर्पित दृष्टि विकसित ही नहीं कर सके हैं । हिलेरी क्लिंटन इस दौरे में कह गई हैं कि भारत के लिये यह एशिया के नेतृत्व का समय है । हम क्या करें ? राष्ट्र का कद बढ रहा है और नेतृत्व का कद छोटा हो रहा है ! अमेरिकी राष्ट्रपति किसी का बंधुआ, किसी के रहमोकरम पर नहीं होता । हमारे पास प्रदेश और देश की जनता से सीधे डायलाग कर सकने, उनमें प्रेरणा भर देने वाले नेताओं का सर्वथा अभाव है । वर्तमान व्यवस्था में आसान रास्ता लेने वाले ऐसे नेताओं की गुंजाइशें बन गई हैं जिन्होंने जन-संघर्ष, जन-आंदालनों का चेहरा तक नहीं देखा है । राजनैतिक व्यवस्था कोई धर्म नहीं है कि जो लिख दिया गया वह कभी मिटेगा नहीं । वक्त के साथ चलना राजनीति की जरूरत है। यह परिवर्तन, नई सोच और नये चरित्र के नेताओं की राह बनायेगा ।

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