Monday, January 9, 2012

"राष्ट्रवाहिनी" का जागरण




“ईमानदारी” का हिन्दी पर्यायवाची क्या है ?  इस सवाल ने एकबारगी बहुतों को सकते में डाल दिया । किसी ने कहा “सत्यनिष्ठा”। लेकिन यह गढ़ा हुआ शब्द है । हमारी भाषा में ईमानदारी जैसा कोई शब्द क्यों नही है ? समाज के सबसे समर्थ दो उच्च वर्गो के वैश्यों के धन एवं शूद्र समाज के श्रम पर निर्भर रहने के कारण ईमानदारी जैसे शब्द का औचित्य ही नही बना । एक शब्द है “धर्म”, जिसमें सब कुछ समाहित है लेकिन धार्मिक परंपराओं ने हमारे समाज के साथ न्याय नहीं किया है । इसका परिणाम विभाजित लोकशक्ति के रूप में सामने आया है ।
      अन्ना का आंदोलन कोई क्रांति का प्रारम्भ नहीं था , सिर्फ एक इशारा था ।  व्यवस्थाओं को सॅंभल जाने की चेतावनी।  लोकपाल भी कोई मुद्दा नहीं है । मुद्दा है आम लोगों की जिन्दगी की दुश्वारियॉं । समस्या  है सत्ताओं का लक्ष्यों से भटक जाना । समस्या है प्रशासन तंत्र का परिणाम न दे पाना । वरना कोई लोकपाल को पूछता ही क्यों ?  हमारे लोकतंत्र में नेता की परिभाषा मात्र प्रशासनिक मशीनरी का इस्तेमाल कर अपने समर्थकों का कार्य  कराने वाले के रूप में सामने आई है । आम जनता की निगाह में अगर राजनीति अपनी हित साधना में लगी मालूम पड़ती है तो इसका दोष किसे दिया जाये । आजादी के बाद सक्षम राजनैतिक नेतृत्व का विकास क्यों नहीं हो सका, इस सवाल को गम्भीर विमर्श की दरकार है। वैकल्पिक राजनीति को कितनी मुश्किले आई है यह कोई अम्बेडकर , लोहिया , जयप्रकाश से पूछे ।  आजादी के बाद, व्यवस्था मोहभंग दौर के आश्चर्यजनक व्यक्तित्व थे डा0 लोहिया , लेकिन समर्थकवादी व्यवस्था में उनका क्या हश्र हुआ , हम सब जानते है ।
      ईमानदारी राष्ट्रीय सशक्तीकरण का साधन है, साध्य नहीं है । जब एक अरसे के बाद आन्दोलनकारियों के हाथ में तिरंगा दिखा और वन्देमातरम् का जयघोष सुनाई दिया तो उम्मीदें बंधने लगी कि देश जिन्दा है । आम लोगों में असंतोष है ।  असंतोष एक शक्ति भी है ।  यह शक्ति किस प्रकार रचनात्मक राह पकड़े यह आंदोलनों की मूल समस्या है । गठबंधनों के घटक, देश के लिये नहीं सिर्फ अपने लिये जिम्मेदार होते हैं । घटकों में बॅटा नेता आज नेतृत्व नहीं करता , समाज को दृष्टि नही  देता । जनहित में मुश्किल फैसले नही लेता। मैंने किसी भी नेता को नगर पालिकाओं के कर जमा करने के लिये आम जनता को प्रेरित करते नही सुना ।  टैक्स कम कराने वाले, टैक्स न देने का अभियान चलाने वाले तो बहुत है ।  नगरों , गॉवों में शिक्षा सफाई का अभियान चलाने वाला, कोई नेता न मिलेगा। कोई भी नेता ऐसा नहीं , जो आबादी पर सख्त नियंत्रण का हामी हो । खरी बात कहना , जरूरत पड़ने पर कड़वी दवा पिलाना भी तो नेता के काम है ।  हमारे नेता जो प्रशासनिक, राजनैतिक, भ्रष्टाचरण के विरूद्ध मजबूत आवाज बनते थे और अधिकारियों, मंत्रियों पर नैतिक नियंत्रण रखते थे, उन्हें भी सुविधाजीवी व्यवस्था ने अपने मकड़जाल में उलझा दिया  है ।  दल विशेष का विकल्प खोजा जाना समझ में आता है लेकिन व्यवस्था का विकल्प खोजना खतरनाक संकेत है ।
      भ्रष्टाचार हमारी व्यवस्था का वायरल बुखार है । जहॉ भी आम नागरिक सेवायें अटकती हैं, वहॉ इस वायरस के ब्रीड करने की सम्भावना बढ़ती है ।  अगर हम अपनी व्यवस्थाओं को उद्देश्यपरक , सेवापरक बना सके तो आम जनता को दैनिक भ्रष्टाचरण से मुक्ति मिल सकेगी ।  कचेहरी तहसील हमारी प्रशासनिक व्यवस्थाओं का आधार है । देश में लगभग तीन करोड मुकद्मंे लम्बित है ।  औसतन महीने में एक तारीख भी मानी जाये तो देश का मुकद्मेबाज करीब 1.00 करोड़ रूपये रोज तारीख के लिये खर्च करता होगा । यह रकम कारपोरेट वर्ल्ड के बड़े-बड़े घोटालों के सामने कुछ भी नहीं है । एक भ्रष्टाचार वह है जो आम जनता की परेशानी का कारण है ।  दूसरा, वह जो राष्ट्रीय संसाधनों पर हमला करता है , अर्थात जो स्विस बैंकों में जमा होता है । कचेहरी का भ्रष्टाचार सामने दिखता है , जबकि कारपोरेट दुनिया के अरबों के वे वारे न्यारे हमें नहीं दिखते , जो राष्ट्रीय संसाधनों का दोहन करते हैं । रेलवे आरक्षण भ्रष्टाचार का उदाहरण हुआ करता था लेकिन कम्प्यूटरीकरण ने इसे अमूलचूल बदल दिया । जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र की वर्तमान प्रक्रिया नगर पालिकाओं को बदनाम करती है । लेकिन कम्प्यूटरीकरण आपको घर बैठे प्रमाण पत्र दिला सकता है ।  इसी तरह न्यायिक प्रशासन भी सुधारा जा सकता  है ।  आमजन के विरूद्ध हो रहे भ्रष्टाचार को सुधारा जा सकता है लेकिन जो गद्दारी राष्ट्र से हो रही है, वह तो अक्षम्य है । आखिर 2 जी घोटाला हुआ ही क्यों ? प्रश्न , व्यवस्था की उन मजबूरियोें का है , जो जानते बूझते भी कुछ नही कर सकी ।  लक्षित तो इस व्यवस्था को किया जाना चाहिये जिसकी उपज ये घोटाले हैं ।    
      आन्दोलनों के साथ सबसे बड़ी परेशानी यह है कि वे अपनी ऊर्जा को सुरक्षित नही रख पाते , उनकी दिशायें कहीं से कहीं और चली जाती है । उनके बीच में अक्सर वे ही प्रवृत्तियॉ पनपने लगती हैं , जिसके खिलाफ आन्दोलन छेड़े गये थे।  जेपी के आंदोलन की राष्ट्रव्यापी सोच से यह उम्मीद तो बिल्कुल नही थी कि इस आंदोलन के गर्भ से जातिवादी किस्म के क्षेत्रीय नेता निकलेंगे । इस आंदोलन ने कार्यकर्ता कम नेता ज्यादा पैदा किये ।  यह आन्दोलन बिखरकर जातिवाद एवं क्षेत्रीयता की बलि चढ़ गया । “सम्पूर्ण क्रान्ति” का जिंदाबाद बोलते नेताओं ने यह नही सोचा कि सतही उपलब्धि के लिये संविधान की धारा 356 को निष्प्रभावी कराने का कितना भयानक परिणाम होने जा रहा है ।  संविधान निर्माताओं ने केन्द्र को सशक्त रखने के उद्देश्य से यह प्रावधान किया था ।  इस संशोधन के बाद हम मजबूर प्रधानमंत्रियों की एक श्रंृखला सी देखते है । “ कमजोर केन्द्र और सशक्त क्षत्रप” की स्थितियॉ हमे सदियों पूर्व  इतिहास के उस कालखण्ड ले जाकर खड़ा कर देगी जब सम्राट समुद्रगुप्त ने क्षत्रपों का मानमर्दन करते हुए राष्ट्र की एकता स्थापित की थी ।  जेपी के आंदोलन की यही उपलब्धि रही है ।
हमने इतिहास में बहुत सी व्यवस्थाओं को पत्तों की तरह बिखरते देखा है ।  अन्ना का आन्दोलन हो सकता है कि विजय की प्रारम्भिक उजास के बाद भी अपने लक्ष्य तक न पहुॅचे । ऐसा भी संभव है कि रामलीला मैदान की भीड़ आने वाले वक्त में उनका साथ छोड़ दे । यही भीड़ हमने जेपी के साथ देखी थी ।  यही भीड़ हमने तब भी देखी थी जब प्लासी के युद्ध से विजयी होकर लार्ड क्लाइव वापस कलकत्ता आया था । वह युद्ध जिसने भारत में अंग्रेजी हुकूमत की नींव डाली, उसके विजेता के स्वागत में कलकत्ते की सड़कों पर तिल रखने की भी जगह नहीं थी। भीड़ का चरित्र भी हमें मालूम है । हमें जरूरत उनकी है जो दमन के पहले हल्ले में भीड़ के भाग जाने के बाद भी अपने-अपने मोर्चो में रहेंगे । हमें आज राष्ट्र समाज के लिये प्रतिबद्ध ऐसे लोगांे की एक मिलिशिया जैसी जुझारू “राष्ट्रवाहिनी” की आवश्यकता है , जिनका साहस और विवेक कभी उनका साथ नहीं  छोड़ता । चुनावों के पार भी एक सतत जागृत शक्ति अस्तित्व में है, जो कभी अम्बेडकर और लोहिया, कभी जेपी और अन्ना की शक्ल में आकार लेती है । यह एक बड़ा सवाल है कि आंदोलनों की शक्ति किस प्रकार लगातार जाग्रत रहे और हमें अपने लक्ष्य से न भटकने दे । इसी में ही भविष्य की सफलतायें निहित हैं ।
       

1 comment:

  1. this is a real fact that यह एक बड़ा सवाल है कि आंदोलनों की शक्ति किस प्रकार लगातार जाग्रत रहे और हमें अपने लक्ष्य से न भटकने दे । इसी में ही भविष्य की सफलतायें निहित हैं. surely हमें आज राष्ट्र समाज के लिये प्रतिबद्ध ऐसे लोगांे की एक मिलिशिया जैसी जुझारू “राष्ट्रवाहिनी” की आवश्यकता है , जिनका साहस और विवेक कभी उनका साथ नहीं छोड़ता ।

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