Sunday, January 8, 2012

अन्ना, जे.पी. और अम्बेडकर



“ एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यॅंू कहो
इस अॅंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है ”

      स्व0 दुष्यंत कुमार ने ये लाइनें जय प्रकाश नारायण के लिये कहीं थीं । आज के हालात में ये अन्ना हजारे पर चस्पा हो रही हैं । जे पी की तरह अन्ना हमारे देश के “कांसंश कीपर ” की भूमिका में आते जा रहे हैं । वे एक उम्मीद की लौ की तरह हैं, जो निराशा के घटाटोप में प्रकाश की संभावनाओं को जिन्दा कर रही हैं । लेकिन उनके आस-पास का वातावरण उनकी प्रकृति से मेल नहीं खाता दीखता । एक अस्वाभाविकता भी साथ चल रही है । आशा की जा सकती है कि लोकपाल एक दायित्वपूर्ण संस्था के रूप में विकसित   होगा । वैसे हमारे यहॉं संस्थाओं की प्रभावशीलता पर संदेह किया जाता रहा है । सवाल उठाये जाते रहे हैं । अगर इच्छाशक्ति हो तो आई0पी0सी0, सी0आर0पी0सी0 की धारायें ही पर्याप्त हैं लेकिन इम इनका ही उपयोग नहीं कर पाते ।
      समस्यायें कहीं और हैं । इलाज कहीं और हो रहा है । भ्रष्टाचार सिविल सोसाइटी का मुद््दा तो है लेकिन वह आम जन का , चुनावों का मुद्दा नहीं बन पाता । हमारे यहॉं क्षेत्रीय, जातीय, भाषाई पहचान महत्वपूर्ण हो गई है । बिहार, गुजरात के चुनावों ने प्रदर्शित किया है कि क्षेत्रीयता के साथ विकास भी एक मुद्दा बन सकता है । तमिलनाडु, उड़ीसा, बंगाल, पंजाब में क्षेत्रीयतायें ही पाला बदल करती रहती हैं । जिसे हम राजनैतिक भ्रष्टाचरण कहते हैं । वह राजनैतिक आवश्यकता बन गई है । चुनाव इतने मॅंहगे क्यों होते जा रहे हैं ? चुनाव आयोग की सख्ती एवं वोटिंग मशीनों ने बूथ कैप्चरिंग का भविष्य अंधकारमय कर बाहुबलियों की भूमिका लगभग समाप्त कर दी । परिणाम यह हुआ कि चुनाव अतिशय खर्चीले हो गये हैं । बाहुबल समाप्त हो गया तो धनबल का ही आसरा रह गया । किसी के भाषणों में कोई दम , कोई सोच नहीं है । मिशन की भावना, बदलाव की सोच कुछ ही दलों तक सीमित रह गई है । जे पी भी राजनीति को बदलने की भावना से चले थे । “दूसरी आजादी” जैसा माहौल बना था लेकिन परिणति मात्र सत्ता परिवर्तन एवं फिर सत्ता संघर्ष तक ही सीमित रह गई । जे पी के आंदोलन के समुद्र मंथन से हमारी राजनीति के बहुत से रत्नों के साथ विष और अमृत भी निकले । लेकिन आंदोलन के बाद की सत्ताओं ने विषपान पहले किया । बिहार का उदाहरण सामने है । नीतिश कुमार जैसे बहुत लोग देर से पहचाने गये ।
      भ्रष्टाचरण समाप्त करना एक राष्ट्रीय उद्देश्य है । राजनैतिक नहीं, क्योंकि राजनीति की सारी जद्दोजहद सत्ता तक आकर समाप्त हो जाती है । हमारे यहॉं राष्ट्रीय एवं राजनैतिक उद्देश्यों में साम्य नहीं बैठ पाता । धन राजनीति की आवश्यकता एवं बाध्यता बना हुआ है । यह बाध्यता राष्ट्रीय उद्देश्य के विपरीत जाता है । इसका कोई समाधान नहीं निकल सका है । यह बाध्यता समाप्त तब होगी जब राजनीति राष्ट्रीय लक्ष्यों की ओर   चलेगी । राष्ट्रीय लक्ष्य क्या होने चाहिये समानता, भागीदारी, सामाजिक व्यवस्था में बदलाव, जातीयता क्षेत्रीयता का समापन, सशक्त राष्ट्र की भावना । जब हम क्षेत्रीयता जातीयता के आधार पर सत्ता में आये हैं तो हमारा उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन हो ही नहीं सकता ।
      भ्रष्टाचरण तो सामाजिक विसंगतियों का ही आफशूट है । दक्षिणा लेने वाले समाज का व्यक्ति जब पेशकार बन कर कचेहरी में तारीखें लगाता है तो आम मुकद्मेबाज को दस रूपये का चढ़ावा चढ़ाते बुरा नहीं लगता । कारण यह तो हमारी संस्कृति में सदियों की परंपरा रही है । जिस देश में शताब्दियों से राजा और पुरोहितों का सामाजिक वर्ग बिना कुछ किये दक्षिणा और लगान वसूलता रहा हो, वहॉं बिना समाज को बदले शोषण की सोच को समाप्त कैसे किया जा सकता है ।
      बात आकर समाज की सोच और समाज को बदलने पर आकर ठहरती है । समाज की सोच से टकराने का साहस गॉंधी ने दिखाया था , लेकिन वे एक सीमा से आगे नहीं   बढ़े । जे पी ने “सम्पूर्ण क्रांति” की बात तो कही लेकिन उसमें समाज के बदलाव की बात अपरिभाषित ही रही । अगर किसी ने भारत की मूल समस्या से टकराने का साहस किया था तो वे अम्बेडकर थे । यह संघर्ष उन्हें महामानव की श्रेणी में ला खड़ा करता है । उनके संघर्ष को हार या जीत के खानों में नहीं बांटा जा सकता । वह इससे परे हैं । हिंदू बिल      उनके समय में षड़यंत्रकारी नेताओं द्वारा पास नहीं कराया गया तो क्या फर्क पड़ा । यह बिल उनका बनाया हुआ था । हिंदू समाज की महिलाओं को याद रखना चाहिये कि अगर उनमें आज लोकसभा में एक तिहाई आरक्षण मॉंगने की क्षमता आई है तो यह बाबा साहब के कारण है । भारत का दलित शूद्र समाज विश्व का सर्वाधिक प्रताड़ित, पीड़ित एवं शोषित समाज रहा है । दुनिया के इतिहास में किसी भी समुदाय ने इतना कष्ट, दुख, दारिद्रय नहीं झेला जितना हमारे दलित समाज ने  कितनी ही शताब्दियों से बरदाशत किया है । फिर भी बाबा साहब ने समग्र समाज की बात सोची । भारत राष्ट्र की बात की । वे बहुत छोटे लोग हैं जो उन पर उंगली उठाने की कोशिश करते हैं । वे राष्ट्र नायक हैं और आज भी एक महान संभावना   हैं । उनका लक्ष्य तो सामाजिक एकता से पूर्ण होगा । अन्ना हजारे जी जब लोक पाल बिल की विजय के बाद यदि सामाजिक बदलाव व बाबा साहब के मिशन को अपना सकें तो उनके प्रयासों को एक सार्थकता मिलेगी । आजादी के बाद के हमारे आंदोलनकारी नेताओं ने चाहे वे जी पी रहे हों या लोहिया समाज की चुनौती  बनकर राजनैतिक परिवर्तनों का आसान रास्ता लिया है । अगर आप राष्ट्रवादी हैं एवं राष्ट्रीय सशक्तीकरण की बात करते हैं तो अम्बेडकर के समान सामाजिक समस्याओं से सीधा टकराने के अलावा कोई दूसरा मार्ग नहीं है । इस मार्ग पर चेतावनी का एक बोर्ड जरूर लगा है कि यहॉं सफलता के पहले शहादत से सामना हो सकता है ।

1 comment:

  1. भ्रस्ताचार एक मुद्दत के रूप में समाप्त हो रहा है ///फिर राजनीती ही मुद्दा होती जा रही है .......miles to go before we sleep

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