कभी कभी सामाजिक सरोकारों के प्रति धर्म की सजगता का सवाल जेहन में उठता है ! शताब्दियों से धर्म , समाज , और भविष्य के सवाल वही के वही ठहरे है ! धर्म से व्यक्तिगत कल्याण की अपेक्षा तो है , लेकिन यह सामाजिक कल्याण और बदलाव के प्रति मुखर क्यों नहीं है ? धर्म चेतना के विकास का माध्यम क्यों नहीं बन पाता ? धर्मगुरु, धर्म के अधिपति इन सवालों के सामने खड़े नहीं होते ! इन सवालों का कोई सामना नहीं करता ! सबसे बड़ी बात यह है कि कोई सवाल भी नहीं पूछता ! धर्म खंड खंड होते समाज के एकीकरण का मार्ग क्यों नहीं खोजता ? कहा खो गयी है तुलसी , कबीर की संत परंपरा ? हम भाग्यवादी है जो ईश्वर चाहेगा वही होगा ! वर्षा ना होने पर हमारी नियति है आकाश की ओर देखना , अपने भाग्य पर संतोष करना और बादलों का इन्तजार करना ! सारा देश साप्ताहिक , वार्षिक भविष्यफल देख रहा है ! टी.वी. पर धार्मिक चैनलों की भरमार है ! वे कीर्तन कर रहे है , लेकिन समाज के सवालों से उनका कोई वास्ता नहीं है !
चूँकि हम सवाल नहीं पूछते,इसलिए जिनके पास जवाब होने चाहिए उन्हें भी चिंता नहीं है ! धर्म गुरुओ को बताना चाहिए कि सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था की समीक्षा की आवश्यकता है या नहीं ? क्या समाज में जाति व्यवस्था अभी भी चलती रहनी चाहिए ? अंतरजातीय विवाह पर धार्मिक नीति की आवश्यकता है या नहीं ? जिस तरह हिंदू पंथ मानने वाले बहुत से लोग ईसाई व मुस्लिम हो चुके है , क्या उसी तरह हिंदू धर्म में भी इस प्रकार की व्यवस्था है कि अन्य मतावलंबी भी इसमें सम्मिलित हो सके ? फर्ज करे कि किसी महान प्रेरणा से यदि अमेरिका का राष्ट्रपति हिंदू बनना चाहे तो वह क्या करे ? उसे किस वर्ण में रखा जाएगा ? चीन ,जापान , कोरिया, दक्षिण अफ्रीका आदि देशो में बसी उन सभ्यताओ में भी , जिनका ईसा मसीह से कोई वास्ता नहीं है , बहुत से लोग ईसाई हो चुके है ! सनातन धर्म अपनी इतनी समृद्ध सांस्कृतिक एवं दार्शनिक परंपरा के बावजूद ऐसा क्यों नहीं कर सका ? यह किसकी असफलता है ? बहुत से सवालो को जवाब की तलाश है , लेकिन सवाल पूछने वाले नहीं है !
हमें भरोसा नहीं है कि सवाल पूछे जाने से भाग्य का मार्ग बदल सकता है ! इतिहास गवाह है कि सभ्यताओं में जो भी विकास किया है वह सवालों से जूझने से हुआ है - उनसे बचकर निकलने से नहीं ! अपने यहाँ जब समाज को वर्णों और फिर जातियों के खानों में बाँट दिया गया तो सवाल पूछने वाला कोई नहीं बचा ! प्रश्न बुद्ध ने पूछे उत्तर खोजे ! इसी से ही हमारे सनातन धर्म के एक महान पंथ का उदय हुआ ! यह एक अलग बात है कि विश्व के बहुत से देशो में यह पंथ बौद्ध धर्म के रूप में जाना गया ! सवाल ना पूछे जाने से ही हमारी समाजिक व्यवस्था आज भी वही है जहां मनु स्मृति ने उसे छोड़ा था ! क्या हमारे समाज की धार्मिक विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है ? यदि ऋषियों ने वेदों को ही अंतिम मान लिया होता तो वेदान्त ना आते, गीता ना आती , आदि शंकराचार्य ना हुए होते ! यदि धर्म की प्रवाहमान धारा वेदों के बाद ही रुक गयी होती तो हमारा धर्म कितना एकांगी होता ! यदि वैदिक आर्यगण कहते कि यही वेद का अंतिम सत्य है , इसके बाद कुछ भी नहीं कहा जायेगा तो वेदों के अतिरिक्त आज और कोई ग्रन्थ ना होता , लेकिन हमारी धर्म सरिता प्रवाहित होती रही , जबकि अन्य मजहबो में प्रवर्तकों ने जब एक पुस्तक लिख दी या विचार संकलन प्रस्तुत कर दिए तो उसे ही अंतिम मान लिया गया !
सनातन धर्म की महान आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में बुद्ध के प्रति नकारात्मक दृष्टि धर्म के स्वभाविक प्रवाह को रोकती है ! यह रोकना वैदिक ऋषियों द्वारा प्रदर्शित परंपरा व प्रकृति के विपरीत है ! बुद्ध की धारा यदि यहाँ प्रवाहित रहती तो और भी परिष्कृत होकर सामने आती ! बुद्ध सदियों से भाग्यवाद को प्रस्थान करते है ! सवालों से झूझते है ! समाधान का उपक्रम करते है ! हमने उन्हें अपने यहाँ चुप करा कर सवाल पूछने की प्रक्रिया ही रोक दी ! हो सकता है इसलिए हमारा धर्म हमारी सामाजिक समस्याओ के समक्ष खड़ा नहीं हो पा रहा है ! धर्म की क्षमता , महानता को विश्व के सम्मुख स्थापित करना भी एक विवेकशील , तर्कपूर्ण सोच से संचालित संगठन का कार्य है ! दुर्भाग्यवश हमने तर्क का साथ छोड़ दिया है ! जो धार्मिक नेतृत्व अपनी ही क्षुद्र समस्याओं में उलझा है, अपने ही समाज को मानसिक गुलाम बनाकर प्रसन्न है वह समाधान क्या करेगा ? हम लोग अपने समाज को बरगलाया करते है कि वह महानता के दिवास्वप्न में न रहे , सवाल ना पूछे ! क्योंकि प्रश्नों से सुरक्षित हमारा धार्मिक नेतृत्व दिवास्वप्नो के छलावे के अलावा और दे क्या सकता है ?
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