Monday, February 20, 2012

सामरिक समीक्षा का समय


ईरान को आज परमाणु शस्त्रों की आवश्यकता महसूस हो रही है। उसकी पूर्वी सीमा पर एटमी शक्ति संपन्न पाकिस्तान भविष्य में खतरा बन सकता है, लेकिन अमेरिका, इजरायल ही नहीं अरब देश और पाकिस्तान भी नही चाहेंगे कि ईरान के पास परमाणु शस्त्र हों। अमेरिकी प्रस्थान के बाद अफगानिस्तान में छिड़ने वाले भीषण गृहयुद्ध में आखिर ईरान की कोई भूमिका तो बनेगी ही। ईरान का एटम बम विश्व शांति के लिए खतरा है। उसी तरह जैसे पाकिस्तान का एटम बम दुनिया के लिए खतरा था, लेकिन अमेरिका इसकी अनदेखी करता रहा। अमेरिकी राष्ट्रपति सीनेट को साल दर साल प्रमाण पत्र देते रहे कि पाकिस्तान द्वारा कोई आणविक शस्त्र नहीं बनाया गया है। पाकिस्तानी आणविक योजना पर अमेरिका द्वारा लगाम लगाने का कोई प्रयास न किया जाना सिद्ध करता है कि भारत की हैसियत अमेरिकी हितों की दृष्टि से दोयम दर्जे की रही है। अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के विरुद्ध तालिबानों को खड़ा करने में पाकिस्तान की भूमिका महत्वपूर्ण थी। फिर 9/11 के व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर कांड के बाद उन्हीं तालिबान के विरुद्ध अमेरिकी जंग में पाकिस्तान फिर से महत्वपूर्ण हो गया। आज सारी दुनिया को भय है कि पाकिस्तानी एटम बम तालिबानी, जेहादी हाथों में पड़ सकते हैं। पाकिस्तानी वैज्ञानिकों ने डॉ. कादिर के नेतृत्व में जिस तरह से दुनिया में एटमी तकनीक का कारोबार किया है वह अमेरिकी एजेंसियों की निगाह से छिपा नहीं रहा है। फिर भी वे पाकिस्तान के साथ खड़े होने को आज भी मजबूर हैं।
बदलती हुई दुनिया के नए समीकरणों में हम एशिया में अमेरिका की सीमित होती भूमिका को साफ देख रहे थे। इस्लामी क्रांति के बाद ईरान अमेरिकी एजेंट नहीं रहा, अफगानिस्तान विद्रोही देश बन चुका था। अनिर्णीत ईरान-इराक युद्ध ने भी अमेरिका की हैसियत में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की। जाहिर है इस इलाके में अमेरिकी नीतियां कूटनीतिक खामियों का शिकार रही हैं। अमेरिका को यह समझ लेना चाहिए था कि पाकिस्तान जैसे अविश्वसनीय देश पर भरोसा कर दूरगामी रणनीतियां नहीं बनाई जा सकतीं। सोवियत संघ के टूटने और चीन के उभरने के घटनाक्रम के संदर्भ में अपनी नीतियों की पुनव्र्याख्या कर सकने में असमर्थ अमेरिका की भूमिका आज एशिया में महत्वहीन हो चली है।
ऐसा नहीं है कि ईरान पर अमेरिका के आशंकित हमले की इस्लामी देशों मे कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी। हमले के बाद मध्य पूर्व में पैदा होने वाली क्रोध की लहर बहुत से नए सवालों को जन्म देगी। अमेरिका कोई नैतिक शक्ति नहीं है, वह दुनिया में न्याय-अन्याय का फैसला नहीं करता। उसे न्याय के साथ खड़े हुए देखा भी नहीं गया। हमें बांग्लादेश युद्ध और निक्सन का सातवां बेड़ा अभी याद है। इतिहास गवाह है कि अमेरिका ने भारतीय हितों को कभी तरजीह नहीं दी। उनके रणनीतिकारों, राजनेताओं ने कभी भी दुनिया को भारत की निगाह से देखने की कोई कोशिश ही नहीं की। शीत युद्ध के काल में नेहरू की गुट निरपेक्षता को समर्थन देकर भी वे कम्युनिस्ट ब्लाक के देशों को अलग-थलग कर सकते थे, लेकिन उन्होंने नेहरू और भारत की गुटनिरपेक्ष नीति का मखौल उड़ाया। ऐसी स्थितियां बनने भी दीं जिसमें चीन के सामने भारत असहाय बना। यह वही अमेरिका है जिसके विदेश मंत्री डलेस ने 1962 के युद्ध के दौरान सहायता के लिए लिखे गए नेहरू के पत्रों का मजाक बनाया। यह ठीक है कि 1962 की हार नेहरू की नीतियों की असफलता थी, लेकिन विश्व के सबसे सशक्त और लोकतांत्रिक देश होने का दम भरने वाले अमेरिका ने भारत के लोकतंत्र के प्रति उन मानवीय सिद्धांतों का भी परिचय नहीं दिया जो थामस जेफरसन के संविधान में सुरक्षित है। अमेरिकन क्रांति के उद्दात सिद्धांतों को लेकर आजाद हुआ अमेरिका जब दुनिया का सबसे सशक्त देश बना तो उसका अधिनायकवादी तानाशाहों से साथ हो जाता है। दुनिया में अपने वर्चस्व के उस दौर में अमेरिका यदि चाहता तो 1962 के युद्ध के बाद चीन को अक्साईचिन क्षेत्र से वापस जाने को मजबूर भी कर सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। आज सशक्त होते जा रहे चीन की चुनौती को झेलने के लिए विश्व के मानचित्र पर वे अकेले हैं। बिन लादेन का संरक्षक रहा दुनिया का सबसे अविश्वसनीय देश पाकिस्तान आज भी उनका साथी है। भारत को अमेरिका का रणनीतिक साझीदार बनने में अब बहुत देर हो चुकी है।
अमेरिका के जाने के बाद एशिया की क्या सूरत उभरेगी? जब उन्हें अफगानिस्तान से जाना ही है तो ईरान की रीढ़ तोड़ कर जाने से भला क्या मिलने वाला है। जब पाकिस्तानी एटमबम का कोई विरोध नहीं किया गया तो ईरान तो फिर भी पाकिस्तान की तुलना में कहीं अधिक जिम्मेदार देश है। अरब देशों में जनक्रांतियों की आई हुई बाढ़ में आखिर कब तक सऊदी अरब की राजशाही को बचाया जा सकेगा? तात्पर्य यह कि मध्यपूर्व में अमेरिकी वर्चस्व के दिन पूरे होने के करीब आते जा रहे है। एबटाबाद के लादेन कांड के बाद उनका एजेंट पाकिस्तान भी उन्हें आंखें दिखाने लगा है। हमें एशिया में अमेरिका के बगैर रहना सीखना होगा। तिब्बत, दलाईलामा और सीमा विवाद के चलते कोई कारण नहीं कि चीन हमारा मित्र बने। चीन हमारी समस्या बना रहेगा। अमेरिकी सहयोग के दिवास्वप्न से मुक्त होकर सामरिक तैयारियों का जायजा लेने पर हमें पता लगेगा कि हम उम्मीदों से कितने पीछे रह गए हैं। ईरान जैसा तेवर भी हमारे पास नहीं है। जातियों, खेमों, धर्मो, भाषाओं का विभाजन इतना गहरा होता जा रहा है कि संदेह होता है कि हम एक राष्ट्र के रूप में चीन जैसी चुनौतियों का मुकाबला कर भी सकेंगे या नहीं। बंटी हुई भारतीय जनता को तो पता भी नहीं चलेगा कि वह कब और कैसे फिर से गुलाम हो गई। जिस तरह आज राष्ट्रपति अहमदीनेजाद विश्व की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका के सामने बेखौफ खड़े हैं, वक्त आने पर क्या हम चीन के सामने उतनी मजबूती से खड़े हो पाएंगे?


3 comments:

  1. एक विश्लेषणात्मक लेख: हम हमेशा उम्मीदों के पीछे रह जाते है कदाचित कही न कहीं हमारी नीतिया भी किराये की सी लगती हैं.बंटते बंटते और लगातार हम बंटते ही जा रहे है और ऐसे ही अनेको प्रश्नचिन्हो को न्योता दे टे जा रहे हैं.

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  2. अब बात निकली है तो बहुत कुछ कहना जरुरी दीखता है.. जब मै सुरक्षा सम्बन्धी अध्ययन और उसके लिए स्थापित संगठनों के बारे में अपनी समझ बनाने के प्रयास में लगा था. एक वाकये हुआ. मैंने एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के माफिक दफ्तर के निदेशक से मुलाकात का समय लेकर मलने पहुंचा. चर्चा चली भारत पाकिस्तान रणनीतिक / कूटनीतिक संबंधों युद्ध सामग्री के आयात और उसके अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर. चर्चा का एक संक्षेप यथावत यहाँ लिख रहा हूँ ताकि आप लोग खुद अंदाज़े लगा सकें..

    मै: पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध कूटनीतिक युद्ध या आतंकवादी गतिविधियाँ करके तात्कालिक या दीर्घकालिक क्या-क्या लाभ हैं?
    निदेशक: लाभों का वैसे तो कोई मंतव्य नज़र नहीं आता. लेकिन मोस्टली पोलिटिकल होते हैं. पाकिस्तान के शासन में कट्टरवादी समूहों का प्रमुख रोल है.
    मै: सर, पोलिटिकल लाभ में भी अर्थशास्त्र एक बड़ा पहलु होता है. युद्ध सामग्री और संसाधनों में लगने वाले पैसा कोई कट्टरवादी कितने दिनों तक खर्चेगा? मतलब अगर यह कार्य उत्पादक नहीं है तो उसके खर्चे जनभावनाओं के लिए हो रहे हैं या निहित उद्देश्यों के लिए?
    निदेशक: भारत देश को कमजोर करने के लिए.
    मै: सर, उधार लेकर तो कोई बेवकूफ ही खर्चेगा. वो भी पचास साल लगातार. वैसे भी पाकिस्तान के शासन में सेना और ख़ुफ़िया एजेंसियां बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं. और आई.एस.आई. शायद दुनिया की सर्वश्रष्ठ ख़ुफ़िया एजेंसियों में से एक है. उसके बाद भी आप “कट्टरवादी बेवकूफी के सिद्धांत” में विश्वास रखते हैं?
    निदेशक: हाँ, क्योंकि इस्लाम का हिंसक धार्मिक उद्भव और साम्राज्यवादी विस्तार एक बहुत बड़ा कारक है.
    मै: तो आपके मुताबिक पाकिस्तान का एजेंडा इस्लामिक साम्राज्यवादी विस्तार से प्रेरित है और कोई आर्थिक सरोकार नज़र नहीं आता? हथियारों के निर्यातकों के बारे में आपकी क्या राय है? मैंने युद्धनीति में एक सिद्धांत पढ़ा है “थ्योरी ऑफ़ डबल एन्वल्पमेंट” दो तरफ से घेरने का सिद्धांत. अगर उसके मुताबिक कोरी कल्पना करें तो या क्यों नहीं माना जा सकता है की बिलियन डालर डील करने वाली हथियार कम्पनियाँ भी आतंकवाद और सीमान्त हिंसक गतिविधियों में कोई इंटेरेस्ट रख सकती हैं? भाई सीमा पर कोई गतिविधि होगी तो अपने मीडिया से वो लोग युद्ध सामग्री की डिमांड बना देंगे और आतंरिक आतंकवादी घटना होगी तो सुरक्षा उपकरणों का ग्लोबर टेंडर नोटिस निकल जायेगा. इस सिद्धांत के बारे में आपकी क्या राय है ?
    निदेशक : चाहे कोई भी हो, ऐसे कामों को चलने के लिए राज्य की मशीनरी की जरुरत तो पड़ेगी ही. और वो बहुधा पकिस्तान से ही क्यों होते हैं?
    मै: सर जी , हिन्दुस्तान में इतनी हद गरीबी है की यदि आप चाहें तो दस-बीस हजार में बहुत बढ़िया शूटर किराए पर मिल सकते हैं. उनकी शैक्षिक योग्यता और धार्मिक उन्माद कुछ भी हो. गरीबी बहुधा ऐसे पेशे और दुसरे जरायम के लिए सबसे प्रमुख वजह होती है. पकिस्तान में भी आवाम की हालत बहुत अच्छी नहीं है. और फिर किराए के टट्टू लेकर तो यहाँ भी बहुत से खेल चलते हैं, सरकारें तक बनाने और गिराने में पैसे की बड़ी अहम् भूमिका पायी गयी है. फिर इस वैश्विक उदारवादी व्यवस्था में बहुधा भारत और पाकिस्तान के हथियारों से सप्लायर एक ही हैं. और वैसे भी पाकिस्तान में भी अधिकांशतः परिवर्तित हिन्दू ही मुस्लिम हैं. आप लोग इस विषय में कुछ अनुसन्धान क्यों नहीं करते?…

    और भी बहुत सी बातें हुईं लेकिन सार यह ही निकाल पाया कि इस्लामिक साम्राज्यवाद ( आज का कट्टरवाद और आतंकवाद) वह मुर्दा घोडा है जिसे ब्रिटिश राज ने भारत से लेकर मिडिल ईस्ट तक को निशाना बना के अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भाषाई विविधता के आधार पर जिन्दा किया. इसके साथ में हिन्दू कट्टरवादी संगठनों कि उत्पत्ति और चलने में भी ब्रिटिश राज का योगदान निश्चय ही अनुसन्धान का विषय है. “फूट डालो और राज करो” के बारे में तो हमने पढ़ा है लेकिन कूटनीति और भूराजनैतिक गतिविधियों से यह सामाजिक व्यवस्था पर कैसे थोपा जाता है…. शायद भारतीय नीति नियंताओं कि क्षमता उसको समझ पाने के स्तर कि नहीं है. या हो सकता है कि हमारे बहुत से छद्म अध्येताओं और उनके खोखले सिद्धांतों से भी कोई न कोई निशाना साधने में ही लगे हों..

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