Thursday, February 9, 2012

प्राथमिकताओ से परे मुद्दे ..

दैनिक जागरण के आज ९ फरवरी के अंक में प्रकाशित ..



आजकल चुनावों का मौसम है। आजादी और लोकतंत्र के 64 वर्षो के बाद आज के हालात में हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए? जो बड़ा सवाल बनता है वह यह कि क्या हमारे चुनावी मुद्दे उन प्राथमिकताओं के मुताबिक हैं। पहला मुद्दा है बेरोजगारी। प्रकटत: बेरोजगारी का आंकड़ा लगभग 10 प्रतिशत है, लेकिन छिपी हुई बेरोजगारी कहीं अधिक व्यापक है। बेरोजगारी का सीधा जुड़ाव आर्थिक विकास की दर से है। अगर हमारी अर्थव्यवस्था मजबूती की दिशा में चल रही है तो रोजगार के अवसरों के लगातार बढ़ने की संभावनाएं रहेंगी। श्रमिक स्तरीय बेराजगारी के समाधान के लिए नरेगा जैसी योजनाएं तात्कालिक महत्व की तो हैं, लेकिन ये बेरोजगारी के दीर्घकालिक समाधान का मार्ग प्रशस्त नहीं करतीं। रोजगार के अवसरों की वृद्धि के लिए आवश्यक होगा कि पूंजी निवेश के क्षेत्रों का सावधानी से चयन किया जाए। कुटीर उद्योगों की जो भी संभावनाएं थीं, बाजारवाद ने उनका नाश कर दिया है। ग्राम्य उद्योगों के नए सिरे से पुर्नगठन की आवश्यकता है। रोजगार के लिए देश के समस्त भागों में पूंजी एवं श्रम की मुक्त गतिशीलता की आवश्यकता भी होगी। यदि कश्मीर का नौजवान रोजगार के लिए कश्मीर से बाहर नहीं जाना चाहता तो जाहिर है कि इसका प्रभाव कश्मीर में बेरोजगारी को बढ़ाने वाला होगा। इसी प्रकार यदि महाराष्ट्र, असम में श्रम का आगमन गैरआर्थिक कारणों जैसे कि जातीय, भाषाई दुर्भावनाओं के कारण बाधित किया जाता है तो यह पूंजी निवेश एवं रोजगार के अवसरों की वृद्धि पर विपरीत प्रभाव डालने वाला कार्य होगा। पूंजी को अपने प्रदेशों में आकर्षित करना एक चुनावी मुद्दा होना चाहिए। कार्यक्रम क्रियान्वयन जैसे विभाग बनाए गए, पर रोजगार प्रबंधन के लिए कहीं भी कोई मंत्रालय नहीं है। साथ ही यह भी मुद्दा होना चाहिए कि नौजवानों को देश के किसी भी राज्य में कार्य करने पर किसी भी प्रकार की कोई रोक टोक स्वीकार्य नहीं होगी। उदाहरणस्वरूप यदि उत्तर प्रदेश की बात करें तो ऐसे प्रदेशों में जहां उत्तर प्रदेश के श्रमिक जाते हैं, राज्य सरकार के ऐसे कार्यालय होने चाहिए जो वहां सेवायोजन की संभावनाओं को बढ़ाने का कार्य करें। ये कार्यालय रोजगार, पर्यटन, शासकीय कार्य व्यवहार जैसे बहुत से कार्य संपादित कर सकते हैं। हिंदी प्रदेशों के शिक्षा विभाग मराठी, बांग्ला, तमिल या पंजाबी की आधारभूत शिक्षा के कोई कार्यक्रम नहीं चलाते। ये वे प्रदेश हैं जहां अधिकांश हिंदीभाषी लोग रोजगार के लिए जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि कभी इस दिशा में सोचा भी गया हो। इस दिशा में प्रयास तो तब होता जब सरकारें अपने प्रदेशों में एवं प्रदेश के बाहर भी अपने नौजवानों के रोजगार की संभावनाओं में वृद्धि के लिए गंभीर होतीं। राज्य यदि इस दिशा में रुचि प्रदर्शित करने वाली संस्थाओं के प्रोत्साहन का भी कार्य करें तो रोजगार, पूंजी निवेश का वातावरण बनने लगेगा, लेकिन यहां तो सुविधाओं और सेवाओं के मुफ्त बांटने के वायदे करने का चलन बन गया है। हमारे ग्रामीण व गरीब नगरीय समाज को मुफ्तखोर बनाने की कोशिशें हमें कहीं का नहीं छोड़ेंगी। अपने नागरिकों, नौजवानों की क्षमता में वृद्धि करने, उनमें आत्मविश्वास जगाने, उन्हें समर्थ बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। रोजगार को पहली प्राथमिकता देने के बाद हमारी दूसरी प्राथमिकता संसाधनों में वृद्धि एवं जन सुविधाओं में विकास की होनी थी। जो संसाधन बनाए गए जैसे सड़कें, नहरें, ट्यूबबेल, कुएं, सामुदायिक केंद्र, स्वास्थ्य केंद्र, विद्यालय आदि कभी भी जनता को हस्तगत नहीं किए गए। न ही ऐसा सोचा भी गया। परिणाम यह हुआ कि जो जिम्मेदारी की भावना जनता में अब तक आ चुकी होती वह आने से रह गई। आज का राजनीतिक नेतृत्व यह मानता है कि जनता मात्र छूट और सुविधाएं मांगने में ही रुचि रखती है। वे चुनावों में हमेशा वही भाषा बोलते भी हैं। तात्पर्य यह कि जन सहभागिता की प्राथमिकताएं सत्ता की राजनीति की प्राथमिकता नहीं बन सकीं। विभाजनकारी जातिवादी राजनीति इसका कारण है। चुनावों के समय राजनीति प्राय: सर्वशक्तिमान देवताओं की भाषा बोलती है कि सत्ता में आते ही वे सब कुछ कर डालेंगे। जनता की भूमिका मात्र दृष्टाभाव से उनकी जादूगरी देखने की है। हमारी राजनीति विकास में जनता की भागीदारी की बात नहीं करती। प्रत्येक गांव को सड़कों से जोड़ा जाना है। हैंडपंप लगने हैं, बोरिंग होनी है, तालाब खुदने हैं, वृक्षारोपण किया जाना है, नहरें बनाई जानी हैं, लेकिन इनकी मरम्मत इनकी रखवाली की कोई नियमित व्यवस्था नहीं बन सकी। विकास की 11 पंचवर्षीय योजनाओं के गुजर जाने के बाद भी हम अपनी सार्वजनिक परिसंपत्तियों के प्रति जिम्मेदारी का भाव उत्पन्न कर सकने में समर्थ नहीं हो सके हैं। राजनीति उन मुद्दों, विषयों पर अभियान चलाने में अपने को असमर्थ पाती रही है जो जनता से सीधे जुड़ते हैं एवं उन्हें दायित्व देने का प्रयास करते हैं। चूंकि स्थानीय जिला परिषदों, ब्लाकों व ग्राम समाजों की परिसंपत्तियों के अनुरक्षण की कोई जिम्मेदारी नहीं है इसलिए उनमें अपनी आय बढ़ाने के प्रति भी कोई सोच विकसित नहीं हो पाती। हमारे विवाद हमारे विकास का रास्ता रोकते हैं। आज न्याय-अन्याय की समझ का अभाव हो चला है। ग्राम पंचायतों द्वारा विवादों का समाधान हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए था। कभी सोचा गया था कि ग्राम पंचायतें स्थानीय विवादों का निपटारा एवं अपने स्तर पर करेंगी, लेकिन आजादी के इतने वर्षो बाद भी इस दिशा में कुछ भी नहीं हो सका है। शहरी कचहरियों में मुकदमेबाजों की भीड़ में आज तक कोई कमी नहीं आई है। पंचायत आधारित ग्राम्य न्यायालयों की स्थापना किसी भी राजनीतिक दल का एजेंडा शायद ही कभी रहा हो। प्रेमचंद की कथा पंच परमेश्वर में ग्रामीण भारत के अतीत की जिस न्याय व्यवस्था के दर्शन हमें होते हैं हमारा आधुनिक लोकतंत्र तो हमें वहां तक नहीं पहुंचा पाया है। एक भारत था गांधी के सपनों का, जो उनकी प्रसिद्ध पुस्तक हिंद स्वराज में मुखर होता है। गांधी की कल्पना से परे था कि ऐसा भी वक्त आएगा जब हमारे ग्राम गाय बैलों से विहीन हो जाएंगे, वहां ट्रैक्टरों का, डीजल आधारित अर्थव्यवस्थाओं का राज हो जाएगा। आज वहां कोई उद्योग नहीं हैं। सब कुछ शहर से आ रहा है । पशु नहीं रहे तो तालाबों की आवश्यकता नहीं रही। रही-सही कसर बाजारवाद ने पूरी कर दी। आज गांव शहरों महानगरों को मात्र लेबर आपूर्ति करने वाले डिपो बन कर रह गए हैं। जातिवाद के सहारे खड़ी की जा रही सत्ता की राजनीतिक जंगों का माध्यम बना हमारा ग्राम, समग्रता की सोच खो चुका है। हम भारत को गांवों के देश के रूप में पढ़ते और देखते आए हैं। ग्राम्य व्यक्तित्व अपना अस्तित्व खो रहा है, अफसोस यह कि उसे इसका अहसास तक नहीं है। 

2 comments:

  1. लोकतंत्र के 64 वर्षो के बाद आज के हालात में हमारी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए? जो बड़ा सवाल बनता है वह यह कि क्या हमारे चुनावी मुद्दे उन प्राथमिकताओं के मुताबिक हैं

    Aapne to sankuchh likh diya Sir !

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